मुरझाने सबै अंग रह्यौ न तनक रंग
murjhane sabai ang rahyau na tanak rang
मुरझाने सबै अंग, रह्यौ न तनक रंग,
बैरी सु अनंग पीर पारै जरि गयौ ना।
इते पै बसंत सो सहायक समीप याके,
महा मतवारी कहूँ काहू तें जु नयौ ना॥
तीखे नए नीके जी के गाहक सरनि ले ले,
बेधै मन कों कपूत पिता-मोह-मयौ ना।
पवन-गवन-संग प्राननि पठायहौं तौ,
जान घनआनँद को आवन जौ भयौ ना॥
विरही अपने किसी सखा से कह रहा है। मुझे अनंग (काम) कष्ट दे रहा है। अनंग के प्रभाव से अंग शिथिल हैं, उनमें रंग नहीं रहा। यह अपने सहायक वसंत को लाया है। यह अत्यंत मतवाला है। कभी किसी से झुका नहीं। यह कहना ठीक नहीं कि यह शिव के कोपानल में भस्म हो गया। यह अब तक मुझे पीड़ित कर रहा है। कुसुमाकर से एक से एक चढ़-बढ़कर बाण लेता है और अपने पिता मन पर ही प्रहार करता है। इसलिए यदि ऐसी परिस्थिति में प्रिय नहीं आते तो वसंत की वायु चलने के साथ ही प्राण दे देना श्रेयस्कर है।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 250)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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