खोय दई बुधि सोय गई सुधि
khoy da.ii budhi soy ga.ii sudhi
खोय दई बुधि सोय गई सुधि रोय हँसे उनमाद जग्यौ है।
मौन गहै चकि चाकि रहै चलि बात कहै तन दाह दग्यौ है॥
जानि परै नहिं जान तुम्हैं लखि ताकि कहा कछु आहि खग्यौ है।
सौचनि ही पचियै घनआनंद हेत पग्यौ किधौं प्रेत लग्यौ है॥
इस अंश में विराहिणी की विरह दशा का निवेदन कोई दूती प्रिय से कर रही है और बतला रही है कि प्रेम करने के अनंतर उसकी जो दशा हुई वह उस व्यक्ति की-सी है जिसे प्रेम लग जाया करता है। प्रेमावेश और भूतावेश में एक-सी स्थिति हो जाती है। इसी क्रम में दूती कह रही है कि जैसे भूत लगने पर आदमी की अवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है, उसी प्रकार तुम्हारे प्रेम में उसकी स्मृति जाती रही है। तुम्हें देखने के बाद न जाने उस पर क्या प्रभाव पड़ा है कि उसने अपनी बुद्धि खो दी है, उसकी याददाश्त ख़त्म हो गई है। कभी रोती है, कभी हँसती है, कभी रोते हुए हँसती है। मानो उसके अंदर कोई उन्माद जगा हुआ है। वह कभी चुप्पी धारण कर लेती है और कभी सकपकाकर इधर-उधर देखती है। यदि वह चलकर तुम्हारे पास कुछ कहने भी जाती है तो तुम्हारे ऊपर उसके अंतर्दाह और उसकी दुर्व्यवस्था का प्रभाव भी नहीं पड़ता है अथवा उसके भीतर कोई आग सुलग रही है। वह सोच-सोचकर परेशान होती है, घुल-घुलकर मरती है। पता नहीं, उसे प्रेम की बीमारी है या प्रेम लग गया है।
- पुस्तक : घनानंद कवित्त (प्रथम आनन) (पृष्ठ 137)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान
- संस्करण : 1972
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