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गोरे गात, पातरी, न लोचन समात मुख

gore gat, patri, na lochan samat mukh

केशवदास

केशवदास

गोरे गात, पातरी, न लोचन समात मुख

केशवदास

गोरे गात, पातरी, लोचन समात मुख,

उर उरजातन की बात अवरोहिये।

हँसति कहत बात, फूल से झरत जात,

ओंठ अवदात राती रेख मन मोहिये॥

स्यामल कपूरधूर की ओढ़ैनी ओढ़े, उड़ि,

धूरि ऐसी लगी केशो उपमा टोहिये।

काम ही की दुलही सी काके कुल उलही सु,

लहलही ललित लता सी लोल सोहिये॥

गोरा-गोरा कृशांगी शरीर है, बड़े-बड़े नेत्र हैं, और कुचों की बात क्या कहूँ वे तो ऐसे हैं कि उनकी तसवीर हृदय में बसा लेनी चाहिए। वह हँसते हुए बात कहती है मानो फूल झरते हैं, गोरे-गोरे ओठों पर पान की लाल रेखा है जो मन को मोहती है। श्याम रंग की कपूरधूर की ओढ़नी ओढ़े है जो ऐसी है जैसे कपूर की धूर उड़कर अंग में लग गई हो, उसकी उपमा खोजना व्यर्थ है। वह रति के समान सुंदरी जाने किसके कुल में पैदा हुई है और लहलहाती हुई सुंदर लता के समान चंचल है।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रिया-प्रकाश (पृष्ठ 104)
  • संपादक : लाला भगवान 'दीन'
  • रचनाकार : केशवदास
  • प्रकाशन : संजय बुक सेंटर, गोलघर, वाराणसी
  • संस्करण : 1981

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