जान प्यारी हौं तो अपराधनि सों पूरन हौं
jaan pyari haun to apradhani son puran haun
जान प्यारी हौं तो अपराधनि सों पूरन हौं,
कहा कहौं ऐसी गति आवत गरो रुक्यौ।
साध मारै सुधा तो सुभाय के मिठासै, ताको,
आसा लै दहति, भै चरन-कंज सों ढुक्यौ।
इते पै जौ रोष के रसीली हियो पोढ्यौ करौं,
तौ न कहूँ गैर जी को, वे हू झगरो चुक्यौ।
ऐसें सोच-शाँचनि आनंदघन सुखनिधि,
लपट कढ़ै न नेकौ हा हा जात ज्यौं फुर्यौ॥
प्रिय सुजान, मैं तो अनेक अपराधों से भरा हूँ। तुमसे क्या ही कहूँ, यदि कहना भी चाहूँ तो गला रुक जाता है, कुछ कहते ही नहीं बनता। मेरी स्थिति यह है कि तुम्हारे प्रेम की जो उत्कट लालसा है वही अमृत है। उसमें स्वाभाविक मिठास है जो मुझे प्रिय है। वह लालसा ही अमृत होते हुए भी मारे डाल रही है। इस साध को मार के यदि तुम्हारे चरण-कमल में छिपकर बचने का प्रयास करता हूँ तो उन चरण-कमलों की आशा भी सुख-शांति देने के बदले जलाए डाल रही है। तुम्हारी साध से विरत होकर कोई अन्य आश्रय खोजूँ तो अन्य कोई आश्रय नहीं मिलता। अत: अब सारा झगड़ा मिटा। हे आनंद के मेघ और सुख-समुद्र, सोच की आँच बढ़ती ही जा रही है। बाहर लपट नहीं निकल रही है, वह भीतर ही भीतर सुलग रही है। प्राण उसमें भस्म हुए जा रहे हैं। तुम्हीं रसवृष्टि और सुखदान से उसे बुझा सको तो बुझाओ; अन्य मार्ग शेष नहीं।
- पुस्तक : घनानंद-कवित्त (पृष्ठ 213)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान प्रकाशन, वाराणसी-1
- संस्करण : 1972
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