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चाहती सिंगार तिन्है सिंगी सों सगाई कहा

chahti singar tinhai singi son sagai kaha

आलम

आलम

चाहती सिंगार तिन्है सिंगी सों सगाई कहा

आलम

और अधिकआलम

    चाहती सिंगार तिन्है सिंगी सों सगाई कहा,

    औधि की है आस तौ अधारी कैसे गहिये।

    बिरह अगाध तहाँ सुन्नि की समाधि कौन,

    जोग, काहि भावै जु वियोग दाह दहिये।

    ‘सेख’ कहै मैन-मुद्रा मोहन जु लाये बन,

    मुद्रा लाओ काननि सुने सूल सहिये।

    लागै लग नेकहूँ जौ बैरी नीरो होय,

    ऊधौ एते बीच की बिचारि बात कहिये॥

    गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! हम तो शृंगार करना चाहती हैं, अतः हमें जोगियों की शृंगी से क्या करना है? हमें तो कृष्ण के लौट आने की अवधि की आशा है, फिर हम तुम्हारे निराकार परमात्मा को कैसे ग्रहण करें? यहाँ तो हम कृष्ण के अगाध विरह में पड़ी हैं फिर हम शून्य में समाधि कैसे लगाएँ? हम रात-दिन वियोग की आग में जलती हैं, अतः हमें योग कैसे अच्छा लग सकता है? कृष्ण का कामदेव जैसा रूप हमें प्यारा है और तुम हमें योग-मुद्रा धारण करने की बात कहते हो। यह बात हमें शूल की तरह चुभती है। तुम शृंगी, मुद्रा, समाधि योग की बातें करते हो! हमें ये ज्ञानोपदेश ज़रा भी अच्छे नहीं लगते, बल्कि तुम तो धोखा देने के लिए समीप आए हुए शत्रु की तरह लगे हो। इसलिए हे उद्धव! तुम हमारे साथ सोच-विचार कर ही बात करो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आलम ग्रंथावली (पृष्ठ 76)
    • संपादक : विद्यानिवास मिश्र
    • रचनाकार : आलम
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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