आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौ लौं
aanaakaanii aarasii nihaaribo karauge kau lau.n
आनाकानी आरसी निहारिबो करौगे कौ लौं
कहा मो चकित दसा त्यों न दीठि डोलिहै।
मौन हूँ सों देखिहो कितेक पन पारिहौ जू
कूक भरी मूकता बुलाय आप बोलिहै।
जान घनआनंद यौं मोहिं तुम्हैं पैज परी
जानियेगी टेक टरें कौन धौं मलोलिहै।
रूई दियें रहौगे कहा लौं बहराइबे की
कबहूँ तो मेरियै पुकार कान खोलिहै॥
आनाकानी करने या मुझे टालने के बहाने से दर्पण को आप कब तक देखेंगे। दर्पण में आप जो कुछ देखते होंगे वह किसी आकर्षक रूप को ही देखते होंगे। मेरी विरह-दशा भी आकर्षक है, चकित कर देने वाली है। आपने मुझे न देखने का व्रत तो लिया ही है, मुझसे न बोलने का भी व्रत ले रखा है। आपके इस व्रत के संबंध में भी देखना है कि आप अपनी मौन रहने की प्रतिज्ञा का पालन कितना करेंगे। यदि आपने मौन का व्रत ले रखा है तो मेरी विरह वेदना को सहने की वृत्ति भी मौनवाली ही है। वेदना की वह वाणी मेरे मौन में पुकार बनकर भरी हुई है। यह वाणी या पुकार इतनी प्रबल है कि पहले आपको बुलाएगी, फिर वह स्वयं बोलेगी। हे सुजान, यदि आपने प्रतिज्ञा कर ली है तो मेरी भी प्रतिज्ञा है। इसकी होड़ लग गई है। देखना है कि अपनी प्रतिज्ञा के टलने पर पहले न जाने कौन पछताए—आप या मैं। आपने न बोलने का ही नहीं, न सुनने का भी व्रत ले रखा है। बहरे बने रहने या न सुनकर बहला देने की रूई से आपके कान कब तक बंद रह सकेंगे। मेरी मौन की पुकार आपके कानों की यह रूई हटा देगी। मेरी दशा आपके नेत्रों को, मेरी मौन-वृत्ति आपकी वाणी को और मेरे मौन की पुकार आपके कानों को निश्चित ही प्रभावित करेगी।
- पुस्तक : घनानंद कवित्त (द्वितीय आनन) (पृष्ठ 35)
- संपादक : चंद्रशेखर मिश्र ‘शास्त्री’
- रचनाकार : घनानंद
- प्रकाशन : वाणी वितान
- संस्करण : 1972
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