कथा मैं न कंथा मैं न तीरथ के पथ मैं न
katha main na kantha main na tirath ke path main na
कथा मैं न कंथा मैं न तीरथ के पंथा मैं न,
पोथी मैं न, पाथ मैं न साथ की बसीति मैं।
जटा मैं न, मुंडन न तिलक त्रिपुंडन न,
नदी-कूप-कुंडन न न्हान दान-रीति मैं॥
पीठ-मठ-मंडल न, कुंडल कमंडल मैं,
माला-दंड मैं न ‘देव’ देहरे की भीति मैं।
आपु ही अपार पारावार प्रभु पूरि रह्यो,
पेखिके प्रगट परमेसुर प्रतीति मैं॥
ईश्वर कभी भी कथा, गुदड़ी, तीर्थ, संप्रदाय, पंथों से प्राप्त नहीं होता। कोई विशेष पद्धति का सहारा ले या किसी का सान्निध्य प्राप्त करे—उससे भी वह नहीं मिलता। जटा बढ़ाने, मुडंन करा लेने, तिलक त्रिपुंड धारण करने, किसी विशेष नदी-पोखरों में स्नान करने या दान आदि के द्वारा भी वह नहीं मिलता। पीठ, मठ, या मंडल में भी वह नहीं रहता। वह कानों में कुंडल, हाथ में कमंडल और संन्यास धारण करने से भी नहीं मिलता। माला और दंड धारण करने और देवरा में खोजने से भी वह नहीं मिलता। वह प्रभु तो अपार समुद्र की तरह सर्वत्र व्याप्त है। यदि विश्वास हो तो उसे कहीं भी पाया जा सकता है।
- पुस्तक : देव ग्रंथावली, प्रथम खंड (पृष्ठ 304)
- संपादक : डॉ दीनदयाल
- रचनाकार : देव
- प्रकाशन : नवलोक प्रकाशन हाऊस
- संस्करण : 1967
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