यह समर्पण ध्वनि है तूर्य की-सी बजती हुई
ye samarpan dhwani hai toory ki si bajti hui
अशोक कुमार पांडेय
Ashok Kumar Pandey
यह समर्पण ध्वनि है तूर्य की-सी बजती हुई
ye samarpan dhwani hai toory ki si bajti hui
Ashok Kumar Pandey
अशोक कुमार पांडेय
और अधिकअशोक कुमार पांडेय
एक
शुक्लाष्टमी
रात का वक़्त है नहीं है यह
बहुत मुमकिन है कि जो देख रहा हूँ वह स्वप्न हो कोई दुस्वप्न-सा
पर वक़्त नहीं है रात का
देखो
साफ़ दिख रहा है आसमान में सूरज
जैसे किसी लाश की खुली रह गई आँख
आसमान वीभत्स और विवस्त्र कि जैसे किसी ने झटके से खींच दिया हो चाल का परदा फटे टाट वाला
और उसमें मुचमुचाया सूर्य जैसे भौंचक ताकता कोई बूढ़ा अपाहिज
बादलों के मटमैले टुकड़े कि जैसे उसके वस्त्र हों कीचट
हवा की सांय-सांय जैसे अर्धनग्न बच्चियों की चीत्कार, भाग-दौड़
वक़्त नहीं है रात का यह
अँधेरों पर नहीं थोप सकते अपने अंधत्व का दोष हम।
नीम उजाला भी नहीं चमकती रौशनी में चला आ रहा है राजा का रथ काले अरबी घोड़ों से जुता लहू के कीचड़ में दौड़ता चीरता धरती के सीने को रोज़ नए ज़ख़्म बनाता गूँजता है स्वर विजयी तूर्य का भयावह ध्वजा पर देवता सवार सारे पुरोहितों के मंत्रोच्चार से भयभीत पक्षियों की चीत्कार से भर गया है आकाश तांत्रिक शहरों के बीच-ओ-बीच पढ़ रहे उच्चाटन कर रहे हवन
ॐ लोकतंत्राय स्वाहा
ॐ मनुष्यताय स्वाहा
ॐ सत्याय स्वाहा
ॐ प्रकाशाय स्वाहा
ॐ एम हवीं क्लीं स्वप्नाय नमः स्वाहा
कर रहे समिधा में समर्पित जीव-अजीव-सजीव-निर्जीव उठ रही अग्नि, धुएँ से भरी दसों दिशाएँ, चीत्कार से भरी, भरी आर्तनाद से हाहाकार से जयकार से विलाप से परिहास से अट्टाहास से!
वर्तमान, भूत और भविष्य के स्वप्न
रौंदते हुए सब
अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं
दो
राजा के पीछे खड़ी
चतुरंगिणी फ़ौज बड़ी
तोप और बंदूक़ लिए
भरे हुए संदूक लिए
टी.वी. के चैनल हैं
दफ़्तर अख़बार के
झुक झुक के गाते हैं
गीत सब दरबार के
राजा के पाँव को
राजा की छाँव को
राजा के नाम को
मुख को मुखौटे को
कुत्ते-बिलौटे को
चूमते-चाटते
रेंगते केंचुए-सा
फुँफकारते नाग से
भेड़िये से काटते
पीछे-पीछे भागते हैं हाथ में क़लम लिए
भाषा के कारीगर जादू बिखेरते
कला-कला गा-गा के सिक्के बटोरते
नोच-नोच फेंकते हैं चेहरे पर के चेहरे
आँसू बहाते हैं, रोते हैं, गाते हैं, चीख़ते-चिल्लाते हैं
कोट काला टाँग कर
आला लहराते हुए
प्रेस क्लब का नया पुराना
बिल्ला चमकाते हुए
कविता सुनाते हुए
कहानी बनाते हुए
एकेडमी से कॉलेज से
पार्टी मुख्यालय से
मल-मल के आँख जागे सब
दिन के उजाले में
भागे सब भागे सब
जय श्रीराम, हनुमान जय
जय जय भवानी
जय अक्षरधाम जय
हम भी हैं हम भी है हैं हम ही हैं हम
बम बम बम बोल बम
एक नज़र देखो तो
राजा जी नहीं अगर सारथि जी देखो तो
देखो न कर दो न हम पर भी ये करम
जय जय अमेरिका सी.आई.ए. की जय जय
वर्ण की व्यवस्था जय आप ही की सत्ता जय
कोई नहीं सुनता कोई कान भी देता नहीं
सड़क किनारे खड़ा जन ध्यान भी देता नहीं
देखते ही देखते क्या हुआ ग़ज़ब हुआ
क़लम लिए लिए जोंक बन गए सारे
जाकर चिपक गए अश्वों की पीठ से पूँछ से पैर से लिंग से अंड से
कुछ जो चतुर थे जा चिपके राज दंड से
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं
तीन
ये कौन-सी औरतें हैं अर्धनग्न खड़ीं राह में?
कौन ये वनवासिनें जिनके हाथ में जयमाल नहीं पुष्पगुच्छ नहीं
जिनकी आँखों में भय नहीं क्रोध है संताप है
चीत्कार-सी लगती है जिनके विलाप की ध्वनि
फटी बिवाई वाले पैरों वाली यह कैसी औरतें खड़ी हैं राह में?
कैसी शक्लें कुरूप कैसा स्वर रुक्ष!
इन्हें दूर करो चीखता है सारथी और अश्व चींथते चले जाते हैं उनका अस्तित्व
रौंदते हुए उनका क्रोध उनकी चीत्कार उनका विलाप
यह धरती पर बिछे पलाश के फूल नहीं हैं
उन आवाज़ों का रक्त है
उन विलापों का रक्त
संतापों का रक्त
भागते हैं अश्व तीर से चुभते हुए जंगल के सीने में
चीख़ते हैं मोर, मणि, वनदेवी स्वर में समवेत
कहता है सारथी उन्मत्त से स्वर में
‘यह समर्पण ध्वनि है—तूर्य की-सी बुझती हुई’
विजय मद में मदमस्त राजा
चीख़ता है, गाता है, अपने ही गले को बाजे-सा बजाता है
बाँस की फुनगियों को नोचता है
खखोर डालता है धरती का गर्भ अतिथियों को बाँटता है
पदवियाँ समेटता है भाल पर सजाए हुए तिलक रक्ताभ अपनी धुन में गाता है
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं...
वहाँ जहाँ पहियों के निशान छूट गए हैं विजय चिह्न की तरह
वहीं पाँव के निशान कुछ उभरते हैं,
वहाँ जहाँ बज गई है विजय ध्वनि
कुछ पुरानी आवाज़ें ठिठकी हुई हैं वहाँ
वहीं जहाँ धरती के
गर्भ में घाव है हो रही है हलचल कुछ
गीत कुछ विचित्र धुनों में बज रहे हैं
घायल से सैनिक क़तारों में सज रहे हैं
औरतें वे फिर से उठकर खड़ी हुईं
और उनके हाथ में फूल नहीं बंदूक़ है
लाशों के बीच रखतीं सँभल सँभल के क़दम
थर-थर-थर काँपती नसों में संकल्प प्रतिघात का
संकल्प एक युद्ध का नई शुरुआत का
भय का निशान नहीं
चेहरे की चोटों में ग़ुस्सा अकूत है
गाँवों में, खेतों में, बंजर मैदानों में
भूख से भरे हुए दक्खिन टोले, सहरानों में
दृश्य में
स्वरहीन कंठ हैं रुंधे हुए, नीली नीली लाशें, कीचड़ भरी आँखों से देखते हैं वृद्ध जन भागते हैं पीछे पीछे, भागती हैं औरतें, भागते हैं बच्चे, जानवर भागते हैं। खेतों की मेढ़ों पर, भूतिया से डेरों पर, सूखे हुए कूपों में, ख़ाली बखारों में, मंदिर के ओटले पर, मस्जिद में, गिरजे में और गुरद्वारों में, ऊंघते बेकारों में मची हाहाकार है।
दृश्य में...
राजा के रथ, अश्व, तूर्य, ध्वजा
भव्य सैन्य दल अस्त्र-शस्त्र से सजा
नेपथ्य में अंधकार घोर है
शांति नहीं, संगीत नहीं, संभावना है
शोर है!
कोई नहीं देख पाता कि घोड़े के पाँव में गहरा एक घाव है
रुधिर जो जंगल की धरती पर पसरा पलाश-सा
कुछ बूँदें गिरकर उसमें मिलती जाती हैं
निःशब्द
टापों के बीच टप-टप-टप
और अश्व हैं कि भागते ही चले जाते हैं...
तीसरा सुत्या दिवस1
राजधानी की सुसज्जित यज्ञशाला
हवन कुंड है धधकता
हविष्य घृत धूप चंदन
मंत्रजाप तीव्र, ध्वजा है फहरती
सातों दिशाओं से झुकाए सिर खड़े नृप अधिपति कुलाधिपति
इतिहास कंधे झुकाए विज्ञान के संग धो रहा बरतन
बुहारता है राह गीले चश्मे से झाँकता वह कृशकाय वृद्ध
सीने में गोलियों को पुष्पमाल-सा सजाए
हँस रहा है गोडसे
तेज़ होते जा रहे हैं अट्टहास
एक बच्चा नींद से उठ रो पड़ा है
डर के शोर से
सोमरस की गंध तीखी
तेज़ मंत्रोच्चार
पारिप्ल्व समाप्त सारे, दीक्षाएँ समाप्त, समाप्त उपसद
उपांग याग2 की प्रतीक्षा में झूमते हैं विप्रवृंद
बलिगृह से उठ रहीं चीख़ें निरंतर
मंत्रों में डूबते चीत्कार के करुण स्वर
और उधर वस्त्रावरण में
नग्न महिषी पुरोहित नग्न अश्व घायल
वावाता3 को गोद में बिठाए राजा उन्मत्त
घायल है अश्व, महिषी घायल पुरोहित कामातुर पढ़ता है मंत्र करता केलि
अश्व के पाँवों से रुधिर महिषी की आत्मा से बह रहा है रक्त
पुरोहित उन्मत्त
राजा उन्मत्त
बह रहा है रक्त
पर्वत शिखर से रक्त
महासागरों से रक्त
जंगलों से रक्त
पुरोहित उन्मत्त
राजा उन्मत्त
और फिर उठता है खड्ग अंतिम बलिष्ठ
गूँजती जयकार धड़ से अलग सिर
लड़खड़ाते पाँव श्लथ रुधिर के भँवर में डूबते हैं
अश्रु स्वेद रक्त सब धरा को चूमते हैं
चौंक कर देखता है उसे राजा और फिर मुँह फेर लेता है
जंगली नदी-सी रुधिर की एक धार आती है
और धर्म की ध्वजा और और फहराती है।
उठता हूँ नींद से जाने कि जागरण से
पसीना है कि खून है जाने
अँधेरा इतना कि आँख को कोई रंग नहीं सूझता!
- रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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