क्या करूँ व्याख्या का इतना काम आन पड़ा है
हकलाने के अलावा मैं और कर भी क्या सकता हूँ
इतनी ही मेरी मनुष्यता है बस कि
एकाध और मनुष्य के बैठने की जगह साफ़ कर दूँ
मरखनी गाय के पास मँडराते
शैतान बच्चे का कान खींच दूँ
कहूँ : अबे मुर्ग़ी के, क्या घर से फ़ालतू है?
भतीजे से कहूँ बंबई न जाए—वह
भयानक जगह है
समाज से खिसककर परिवार में छुप जाऊँ
कहला दूँ घर पर नहीं हैं
कब आएँगे पता नहीं
बतलाकर नहीं गए।
- पुस्तक : सरे−शाम (पृष्ठ 214)
- रचनाकार : असद ज़ैदी
- प्रकाशन : आधार प्रकाशन
- संस्करण : 2014
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