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स्वागत

svagat

अनुवाद : रमेश कौशिक

सिल्वा कपुतिक्यान

शनिवार का शोर-शराबा

बहुत भला लगता है

जबकि भतीजे मेरे

उठकर बहुत सवेरे

ख़ुशियों से भर नटखट

घर में घुस आते हैं बिना बताए

काम नहीं आराम नहीं

घर सारा खाता है चक्कर

माँ चिल्लाती—

'ओ दुष्टो

अपने पैरों को तो देखो'

लेकिन भला किसे परवा हे

आधी सड़क लिपट आई है

उनके पैरों की एड़ी से

वे हँसते हैं—

ईश्वर जाने हम कैसे इसको सहते हैं

गंध गाँव की

गँवई हवा की रहती उनमें

दादी माँ का बक्सा डाकू छान मारते

पकड़ रेडियो मेरा घुंडी ख़ूब घुमाते

लेकिन पिछली शरद् ऋतु से

अपनी चाल-ढाल में हैं वे

देवदूत के जोड़े जैसे

ज्योंही वे घर में आते हैं

बैठ पियानो पर जाते हैं

सब कुछ ठीक-ठाक रहता आशानुकूल है

जब तक उनका वादन चलता

नए-नए स्कूल गाँव के में जो सीखा

जल्दी से चुपचाप शाम

फिर घिर आती है

संध्या-प्रकाश से भरा व्योम

निर्मल विस्तृत हो जाता है

ऐसे में संगीत निमंत्रण देता है

संगीत लुभाता है

मैं अपनी पुस्तक

एक तरफ़ रख देती हूँ

बीथोवन

एकांत पहाड़ों से चलकर

तुम आज नगर में जाओ

देहात पहाड़ी गीतों के अभ्यस्त सिर्फ़

तुम उन्हें छोड़कर मेरे पास चले आओ

ग़मगीन गीत

जब लोक कवि गायेगा

श्रोता उसका—

संसार पत्थरों का होगा

महान संगीत अनश्वर बीथोवन

स्वागत है अपने घर पर।

स्रोत :
  • पुस्तक : एक सौ एक सोवियत कविताएँ (पृष्ठ 231)
  • रचनाकार : सिल्वा कपुतिक्यान
  • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
  • संस्करण : 1975

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