एक तन्नी काँपते स्वर से कहीं मनुहार करती,
वाटिकाएँ चमक उठती हैं अचानक रोशनी में
और पथो पर भीड़ चलती।
छ सक्रिय सजग है,
एक चलती है नहीं तो हवा जिससे
सांध्य नभ में घिरे बादल छटें-बिखरें।
अध नभ के तले कोई ढका अंधा एक सोता,
और उसमें दृष्टि-रोधी नरकुलों से घिरा कोना,
जहाँ संध्या की करुण छाया लपेटे
एक घायल हंस, दु:सह पीर विजड़ित,
आह! अंजाना, अकेला,
मृत्यु के क्षण की प्रतीक्षा कर रहा है।
शक्ति उसकी क्षीण इतनी हो गई है
देखने को वह नहीं आँखें उठाता
(मानवों के प्रति घृणा, या लाज उनसे, अंत तक मानो निभाता)
आतशी वह बाण जो नभ का अँधेरा चीरकर के
टूटता है और उसपर चिंगारियों की ज्योतिमय बौछार करता।
फ़िक्र सुनने की नहीं उसको
कि बहती मंद जल की धार कहती जा रही क्या,
पास ही जो है सिसकती निर्झरी यह वेदना बतला रही क्या,
आँख उसकी बंद है, स्वच्छंद सपने से भरा मस्तिष्क उसका,
उड़ रहा वह, उठ रहा ऊँचे, बहुत ऊँचे, जहाँ से
हारकर बादल धरा को लौट जाते।—
ओह। दो डैने, लगाकर होड़ कैसी,
भेदते आकाश को ऊपर उठेंगे—
दिग्विजय की ज्यों ध्वजाएँ।
ओह! घायल हंस कैसा गीत—अंतिम गीत—गाएगा
कि सुनने को जुड़ेंगे देवता, देवांगनाएँ।
गीत अंतर का, परम पावन क्षणों का,
कर्णगोचर मानवों को तो न होगा,
हंस, पर, स्वर हंस का पहचान लेंगे,
और उसकी श्वेतवर्णी जाति के मृदु कंठ शत शत
प्रतिध्वनित उसकी अमर वाणी करेंगे।—
एक क्षण को देर है—बस एक क्षण की —एक क्षण की
मुक्ति के नभ-गान का नवजन्म होने जा रहा है।
पंख दुदुंभि-सी बजाते (हो रही हरकत परो में!)
दे रहे उसको सलामी
जो सवेरे का विधाता आ रहा है।
—इस प्रकार समाधि टूटी। एक भी पर हिल न पाया
कल्पना की वे उड़ानें बे-उड़ी थीं,
कल्पना का गीत अनगाया हुआ था,
कल्पना की रागिनी ही मद होकर,
मदतर होकर, हुई थी शांत,
पंछी मर गया था
उस अँधेरे में जहाँ पर वह पड़ा था।
एक झाड़ी कँपी,
नरकुल इस तरह लहरा अलग हो गए सहसा
एक झोंका हवा का हल्का, चला चुपचाप आया।
मुसकराया बाग़,
चमका, कालिमामय गगन के नीचे अचानक।
और तन्नी काँपते स्वर से रही मनुहार करती।
- पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : याकोव पोलोन्स्की
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 1964
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.