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वो पागल

wo pagal

वसीम अकरम

वसीम अकरम

वो पागल

वसीम अकरम

ख़ून के छींटों, धब्बों

मांस के लोथड़ों और

जलती हुई इंसानी लाशों को देखकर

आज क्यों वो रोने लगा था,

क्यों विस्मित-सा हो गया था।

धमाकों की आवाज़ ने

क्यों उसे कोने में दुबकने के लिए

मजबूर कर दिया था।

जबकि पटाख़ों पर उछलना

उसका शग़ल था,

मरे हुओं को देखकर हँसना

उसे अच्छा लगता था,

जाने कितनी बार

उसने उन गलियों से

लोगों के जनाज़ों को निकलते देखा था

और ठहाके मार-मार हँसा था।

गली के कुत्तों, जानवरों के लिए

वो आतंकवादी था

एक पागल, आतंकवादी

एक-एक कर सबको

अपने चीथड़े बमों से मार डाला था

और अब शिथिल पड़ा है

एकदम शून्य।

रूह उसके आँखों के रास्ते

बाहर निकली थी

यह कहते हुए कि

इसने ही अपनी साँसों को

जलती लाशों की गंध के साथ

अपने भीतर लेने से

मना कर दिया था।

स्रोत :
  • रचनाकार : वसीम अकरम
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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