वो आज भी कूड़ा चुनता है
wo aaj bhi kuDe chunta hai
बालकनी में खड़ी मैं
रोज़ देखा करती थी उसे
बिखरे हुए
उलझे-उलझे बाल
चेहरे पे लटकती झुर्रियाँ
अधपके दाढ़ी मूँछ
पैरों पे पुरानी-सी चप्पल
थका-थका दिखने वाला
कँधे पे बोरी लटकाए
गली के कभी इस ओर
तो कभी दूसरी ओर
कूड़ा चुनता था वो
ख़ुद में मग्न
बस चलता ही रहता
बस चले ही जाता
बालकनी में खड़ी मैं
रोज़ देखा करती थी उसे
ग़रीबी की मार ने
उस नौजवान को
उम्र से पहले ही
बूढ़ा ही कर दिया था
शायद मुस्कुराना चाहता था
लेकिन लटकती झुर्रियाँ
ऐसा करने से मना करतीं
जब थक जाता
बड़ी मुश्किल से
रईसों के आँगन में
एक कोना चुरा लेता
बैठने से भी डरता था वो
पहले माटी-धूल साफ़ करता
ताकि उसकी गंदगी न जकड़ ले
बालकनी में खड़ी मैं
रोज देखा करती थी उसे
गंदे हाथों से
अपनी उसी बोरी से
एक पानी की बोतल निकालकर
साफ़ करने की कोशिश करता
सोचता काश मेरी ज़िंदगी भी
पानी से धुल जाने-सी साफ़ होती
कूड़ा चुनने के बजाय
कहीं एक साफ़ सुथरी जगह
चैन की नींद
और गरमा गर्म
दो रोटी के निवाले खा पाता
अपनी आँखें बंद कर
उसी बोतल के पानी से
अपनी भूख मिटाने की
एक भरसक कोशिश करता
बालकनी में खड़ी मैं
रोज देखा करती थी उसे।
बालकनी में खड़ी मैं
रोज देखा करती थी उसे
अब तो आदत सी हो गई थी
पिछले कुछ दिन दिखाई न दिया
मैं मन ही मन ख़ुश होती सोच के
शायद कुछ अच्छा हुआ होगा
तभी तो अब वो नहीं दिखाई देता
लेकिन अचानक से
बैचेन,परेशान भी हो जाती
मन मेरे को तसल्ली देती
सब ठीक हो उसके साथ
काफ़ी दिनों के बाद
दूर से आती फिर वही परछाई दिखी
मैंने राहत की साँस ली
चलो सब ठीक है
बालकनी में खड़ी मैं
रोज देखा करती थी उसे।
बालकनी में खड़ी मैं
रोज देखा करती थी उसे
लेकिन आज
कुछ बदला-बदला-सा लगा
चेहरे पे झुर्रियाँ नहीं थी
बिखरे उलझे पुलझे बाल नहीं थे
न ही अध पकी दाढ़ी मूंछ थी
जैसे-जैसे वो नजदीक आता गया
मेरी धड़कनें तेज़ होती गयी
ओह ये वो नहीं था
एक मासूम सा चेहरा
प्यारी-सी मुस्कुराहट
चंचल मन बढ़ता बचपन
ज़िम्मेदरियों से लदा
एक प्यारा-सा बच्चा था
अपने पिता के जाने के बाद
मासूम कंधे ने अब
उस बोझ को उठा लिया
बालकनी में खड़ी मैं
रोज देखा करती थी उसे
आज वो नहीं यहाँ
लेकिन फिर भी वो
आज भी कूड़ा चुनता है
बालकनी में खड़ी मैं
अब भी रोज़ देखा करती हूँ उसे।
- रचनाकार : एंजेला एनिमा तिर्की
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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