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विकास-रथ के घोड़े

wikas rath ke ghoDe

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय

विकास-रथ के घोड़े

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

    रथ में जुते हैं घोड़े

    पवन वेग से चलने वाले

    ये पानी नहीं हवा पीते हैं

    इन्होंने सोख लिया है वनस्पतियों का रस

    और मुरझा गए हैं फूल

    ये मनुष्य के लिए नहीं

    मनुष्य पर चलते हैं

    इनकी आहट से बाँझ हो जाती है पृथ्वी

    लहलहाते खेत ऊसर हो जाते हैं

    और नदियाँ रेत का डूह

    ये आते नहीं उतरते हैं

    आज थोड़ी तेज़ चली पछुआँ

    और मैंने इन्हें उतरते देखा

    अब पछुआँ के साथ उठते धूल के बवंडर से

    इनकी जीभ किरकिराने लगी है

    इनके मुँह में लगाम है

    मगर लोहा नहीं

    जिससे बता सकें उसका स्वाद

    इनके रथ के सारथी कौन हैं

    और सवार कौन?

    खोजना थोड़ा मुश्किल है

    अब गंगा और विश्वनाथ भी

    इन्हीं के सहारे उतरते हैं बनारस में

    उन्होंने हिनहिनाना छोड़

    सूँघना शुरू कर दिया है

    गुरु गंगा की सीढ़ियों से उतरते सोच रहा हूँ

    कि कहीं ये विलग ही हो जाएँ अपनी अश्व-जाति से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 80)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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