पानी
pani
पानी को निराश करने पर
बेताब हो जाती है जीने-मरने की पंक्तियाँ
‘हमारा भेड़ा कूदेगा - कूदेगा भई कूदेगा
पीछे हट कर लेगा टक्कर
हय लाव्हरी चिन’
नज़र के सामने का पेड़ खाने लगता है
अपने ही फलों को ज़ुबान काटते अनायास चाह हो तो
बीमारी आ जाती है देह तक
नोंक बन जाता मात्र निमित्त
मात्र पादने से ही हिल जाता है पीपल
झल्लाता है भोलेपन से पेटभीतरकी चेतना का कीड़ा-मकोड़ा
फिर कैसे नज़र-अंदाज़ किया जाएगा
पानी की गिरगिरी के साथ ही पैदा होता हुआ एक-एक बेढंगा
मखमली नहर के भीतर
बन जाती है मोट एरण्ड़ की
गट्ठर बनाया जाता है चलते-फिरते पानी का
लग जाता है सिर छत को और पैर दहलीज को
भिनभिनाते हैं मच्छर होश उड़ाते हुए
उफन जाते हैं सेहुड़ के कोंपल क्षितिज पर
टूटने लगता है गूलर का सुलक्षण प्राण
फल्लियाँ छानते-छानते झड़ जाती है उंगलियाँ प्यास की
और मात्र बंजर काया की करुणा माँगता है मनुष्य
फैल जाता है कटोरा ज़मीन के मुँह का
कितनी बढ़िया चापलूसी करती है तुम्हारी धर्मातीत हुकूमतें
उधर ऊपर की ओर तुम पानी भरोगे
नीचे की ओर हम
बहुत ख़ूब! कैसे पाक बन कर सिखाया जा रहा है पानी को भी चातुर्वर्ण्य
1881 के क़ानून में खटाई में पड़ा हुआ तुम्हारा ख़िदमत-गार कम्बल
बाँझ स्नेह से हमें खेलने लगाने वाली तुम्हारे भवानी भगत की सूँड
पानी में टट्टी किया हुआ ग़ायब नहीं होता
और बेमिसाल क़त्ल किया हुआ भी
अंधे का हाथ च्यूत पर पड़ते ही शरारत करने वाले
चोंचाल गिद्ध बहुत से होंगे तुम्हें लागू होने वाले
लेकिन् जो शेष है सस्तन वे तुम्हारी गूदड़ी को
इस पर मारते हैं
और विशुद्ध रातों को रखते हैं बाधारहित
उन्हें किसी भी बरतन में रखने से वे उबसते नहीं
उन्हें कितना भी घिसा देने पर उन्हें ज़रूरत नहीं होती मुलम्मे की
वे तुम्हारी बिछाई हुई करुणामयी नहरों पर फ़िदा नहीं होते
वे डरते नहीं रबी की खरीफ की चौथाई से
लगाते हैं सोगी तुम्हारे सड़ियलपन को
उठाते हैं तूफ़ानी चकत्ता तुम्हारी शर्म के लिए
अपनी अल्पसंख्यक अयालों को भूलना चाहते हैं सम पर आते ही
तुम वहाँ कितना बहिष्कृत करोंगे गाँव-गाँव को सड़ियल नाक से
पानी का अंतःकरण होता है मूलगामी और उदार
उसका डैना घूमते ही पल भर में खुरण्ड़ जम जाती है हज़ारों यातनाओं पर
कितनी चहारदीवारी करोगे पानी की
कैसी डालोगे नकेल पानी की कलकलाती हुई सूरत को
कभी भी ख़त्म नहीं होते पानी के स्टेशंस
पानी ज़रूरत नहीं होती पीटने की ठनठनगोपाल
गधों को रुलाने तक मिहरबानी नहीं होती है पानी में
पानी के दौड़ता है पाप पुण्य के आगे
जो भी पानी की मस्करी करते हैं वे तीसरे पैर से पाताल पहुँचते हैं
भलों-भलों को पानी के छक्के-पंजे नहीं करने चाहिए
पेरुमल कमीशन के 1117 क़त्लों की अस्मिता होती है पानी में
किलोवेनमानी की होली की आँच होती है पानी को
मुरझा कर फेंकी हुई हज़ारों अंगियों की मस्ती होती है पानी को
तुम पानी के फंदे में मत फँसो
उसके ख़ानदान को मत ढूँढ़ो
पानी होता है सिद्धार्थ जैसा
पानी होता है अशोक वृक्ष जैसा
पानी होता है तेज़ाब ही
पानी पानी
बोल पानी तेरा रंग कैसा
बेटा, तेरी आँखों जैसा
पानी पानी
बोल पानी तेरा रंग कैसा
बेटी, तेरी प्यास जैसा”
तुम अपनी बहुसंख्यक ताकद की झूल कँटीले बाड़ पर डाल दो
सूखने के लिए
और रास्ता कर दो पानी के लिए
पानी दे दो रे भैया पानी डालो
इत्तीसी धार छोड़ो पानी डालो
अजी भय्या अजी पटेल साब ओ मालिक ओ दे दो ना पानी
आग आग आऽऽ
धत् तेरे की बाम्बू घुसेड़ दिया ऐ चिप्पड़-चचोड़े
स्साले मेरी पेन्दी तेरे मुँह पर मारू
हट् हट् स्साले बेटीचोद
ये मुट्ठीबहादर से बागडू
धत् तेरे की छिनाल की औलाद
हट् हट् स्साले पानी की अरगल
“तू यहाँ से निकल जा मेरा ख़ून मत जला
मैं तुझे फाड़ डालूँगा दुनिया को जला डालूँगा
हट् हट्
नदी साबित रखती है अपना हक आदमियों पर हम
जहाँ-जहाँ पैर रखेंगे वही फूटेंगे झरने साफ़ निथरे पानी के
उसके बाद नहीं रहेगा कोई भी प्यासा हमारे समेत
और भूनी नहीं जाएगी कमची पानी की
पानी को जात-पात का रंग देने वाले तुम्हारे
एकमात्र ईश्वर को लग जाएगा अफ़लातून पाखाना
और फिर तुम्हें धोती के पल्ले गीले रखने के लिए
भीख माँगने पड़ेगी पानी की
हम तुम्हें पानी से भरे हुए कमोरे देंगे
ऐ ज़ालिमों,
पानी जैसा दूसरा बेहतरीन कर्त्तव्य नहीं होता कुछ भी दुनिया में
अगर पानी की किल्लत हो जाए तो
जिस आसानी से तुम क़मीज़ बदलते हो
ठीक उसी तरह शहरों को भी
तो कहो, पानी के लिए तड़प-तड़प कर मरने वालों को
क्या बदलना चाहिए?
- पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 106)
- संपादक : चंद्रकांत पाटील
- रचनाकार : नामदेव ढसाल
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
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