Font by Mehr Nastaliq Web

बंजारे

banjare

निधीश त्यागी

और अधिकनिधीश त्यागी

     

    एक

    हमारे पूर्वज कहीं नहीं गए अपनी जगहों से
    पृथ्वी पर हमारे गाँव तय रहे
    हमारे नामों में दाख़िल
    हमारी पहचान में दर्ज

    पृथ्वी हमेशा रुक गई
    कुछ कोस के बाद
    परदेस बनकर
    जहाँ हमारी बहनें गईं

    बंजारे कहीं नहीं टिके
    चलते रहे पाँव उनके दिन भर

    रात भर थिरकते रहे पाँव उनके
    काँपती रही आवाज़ें
    रोती रही वायलिनें
    और सारंगियाँ

    वे हर बार
    धरती के सिरे पर रहे
    हर बार
    एक नए कोने पर

    एक पुराना गाँव छोड़ते
    एक नया गाँव बनाते
    मिटाते रेत और उसकी घड़ी पर

    वे मिटना लिखते हुए
    छूटते जाते हैं
    वह पकड़ते हुए
    जो बुन रहा है
    पृथ्वी पर उन मनुष्यों का रास्ता
    जो हर क़दम पर एक नई ड्योढ़ी लाँघता है

    भूगोल और इतिहास
    अकाल और जंगों
    मोह और उम्मीदों और वादों
    सभ्यता और नागरीयता
    और नक़्शों और असंभव के
    परे
    और
    बाहर

    अपनी धूसर अंटी में गड्डमड्ड और मुड़ी-तुड़ी 
    संस्कृति दबाए हुए
    रहस्य और मंत्र और सर्पदंश से मुक्ति की बूटी की तरह
    अपनी आवाज़ों, क़दमों, नाद और स्वर में

    जहाँ फ़्लेमेंकों की एड़ियों की थाप
    पढ़ लेती है
    राजस्थान की सारंगी
    कोई फूट-फूट कर रोना चाहता है
    कोई आँसू धुले चेहरे पर मुस्कुराना

    सफ़र अपने सराय ख़ुद बनाता है
    अपने क़िस्सों की तरह
    जहाँ सच सच नहीं है
    और झूठ झूठ नहीं

    उनके बीच एक रास्ता है
    मुमकिन का मनुष्यता का

    साँसें जज़्ब करती हैं

    वह खींचना
    और छोड़ना
    जो अब तक हुआ है

    शरीर के बचे
    और आत्मा के लहूलुहान में

    रेगिस्तान की रेत पर से
    चाँद गुज़रता है
    उन ज्वारभाटों का हिसाब लिए
    जो समुद्र की सतह पर
    लिखा और मिटा दिया गया

    एक बजती और नाचती और गाती
    हुई हृदयविदारक
    न ख़त्म होती रात में

    जिसका रास्ता तारे तय करते हैं
    ज़मीन नहीं।

    पृथ्वी की धुरी
    पृथ्वी का सफ़र
    पृथ्वी की थकान

    पर पृथ्वी का घूमना

    बंजारा हूक में।

    दो

    वे चाँदनी की राह देखते हैं
    दुनिया भर के सारे बंजारे
    और अँधेरे के सफ़रनामे सुनाते हैं

    सारंगी आवाज़ों में
    सिर्फ़ दर्द जोड़ता है
    उस उत्सव पल को
    जो हर रात का उस रात को ही
    शुरू होता है
    ख़त्म होने के लिए

    वे ज़मीन के रास्ते से गए
    और दिनों में दिखाई नहीं दिए
    नागरी सभ्यताओं से बेदख़ल
    इंसानियत से ज़ात बाहर
    उनका होना हर जगह हर सुबह आगे बढ़ जाना था
    जो हर बार क़ब्ज़ा जमाने की
    बेजा कोशिश की तरह पढ़ा गया

    आबादियों के रजिस्टर से
    रक़बे और चक से
    जंग और संधियों की शर्त से
    वे निर्वासित रहे
    इंसानियत की सिमटती शामलात ज़मीन
    और शरणार्थी शिविरों में

    इंसानियत के घुप स्याह में
    इतिहास के बियाबान में
    वे जुगनुओं की तरह
    टेक लगाते रहे
    आज यहाँ दिख कर
    कल कहीं और
    गुमशुदा सुराग़ों की तरह
    समय के आर-पार
    कहीं नहीं के वहीं में
    वे धर दबोचे गए
    जब भी कभी मुश्किल हुआ
    जुर्म के असली गुनहगारों की
    कॉलर तक क़ानून का पहुँचना

    वे नीच, कमीन, जरायमपेशा, रोमां, जिप्सी, बंजारे, अनपढ़, जाहिल, कामचोर, ठग, निकम्मे, गिरहकट, झपटमार, बेड़िए, अपराधी, घुमंतु... विशेषणों की पकड़ से बच निकलने वाले

    पगडंडियों की तरह मुख्य मार्गों से
    और सफ़र की तरह सरायों से आज़ाद

    पाजेबों और फ़्लेमेंको एड़ियों में छमकते हुए
    ढोल और लकड़ी के डब्बों पर थाप देते
    खपच्चियों की गिड़तिड़ में बिजली की तरह बहते
    पेट से निकलती आवाज़ में कँपकपाते और
    रोते राजस्थान की सारंगियों से
    एंदेलूशिया की वायलिनों तक

    एक ज्वार उठता है
    बहुत धीरे से
    बहुत तेज़ तक

    उस चाँदनी रात को
    उस अँधेरे की कहानी
    बयान करने के लिए

    जो मनुष्यता के घुप में इकट्ठा
    होता रहा है

    यूँ फूट पड़ने के लिए

    तीन

    कई घेरे मिलते हैं
    एक घेरे में
    घेरों में बनते हुए घेरे
    घेरों से बनते हुए घेरे
    परछाइयों के

    सभ्यताओं के नामुमकिन में
    सभ्यताओं के ठहरे में
    संस्कृति का घेरा

    लहराते लहँगे में
    फहराती आवाज़ों में
    घुमड़ते आरोह में

    जो एकदम भभक कर उठता है
    आकाश में सर्पिल
    और जान अटक जाती है
    दुनिया को छोड़ 
    ख़बरों से बाहर 
    राष्ट्रीयता के पार
    घुँघरू की छनक में
    सारंगी के दारुण में
    आवाज़ के आर्तनाद में
    बिजलियों की तरह तेज़
    और लपकते हुए आदिम के
    अनंत को
    छूते हुए, छेड़ते हुए
    आग के घेरे में

    उदासी और थकान के बाहर
    भाषा के प्राचीनतम में
    कहीं नहीं के
    यहीं कहीं वहीं में

    हो पाने के भयावह से
    एक क़दम बाहर
    होने के उत्सव में
    गर्मजोश़, पुलकित, जाज्वल्यमान्,
    जो पहुँचते हैं यहाँ
    अँधेरे, सन्नाटों, वक़्त और 
    आशंकाओं को चीर कर

    वे घेरा बनाते हैं
    एक और आख़िरी का
    एक और साँस का
    न लौटने के सफ़र पर निकले का

    इतिहास के लापता में
    अपनी गुमशुदा शिनाख़्त
    दर्ज करवाते हैं
    जंगल में जुगनुओं की छिटक की तरह

    वे चमकते हुए रौशन धूल के कण
    भूगोल और सभ्यताओं के
    आर-पार
    ग़ायब हो जाने से पहले
    मनुष्य होने का
    एक और गीत गाते हुए

    और चले जाते हैं
    किंवदंतियाँ बनते हुए
    दिनारंभ पर

    हाशिए के उस तरफ़।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निधीश त्यागी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए