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उठे बादल, झुके बादल

uthe badal, jhuke badal

हरिनारायण व्यास

हरिनारायण व्यास

उठे बादल, झुके बादल

हरिनारायण व्यास

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    उधर उस नीम की कलगी पकड़ने को

    झुके बादल।

    नई रंगत सुहानी चढ़ रही है

    सब के माथे पर।

    उड़े बगुले, चले सारस,

    हरस छाया किसानों में।

    बरस भर की नई उम्मीद

    छाई है बरसने के तरानों में।

    बरस जा रे, बरस जा नई दुनिया के

    सुख संबल।

    पड़े हैं खेत छाती चीर कर

    नाले-नदी सूने।

    बिलखते दादुरों के साथ सूखे झाड़

    रूखे झाड़।

    हवा बेजान होकर सिर पटकती

    रो रही सरसर।

    ज़मीं की धूल है बदहोश

    भूली आज अपना घर।

    किलकता आ, बरसता आ,

    हमारी ख़ुशी बेकल।

    उधर वह आम का झुरमुट

    वहीं हैं पास में पनवट।

    किलकती कोकिला, बेमान होकर देखती जब

    चाँद मुखड़े पर घटा-सी छा गई है लट।

    खड़ी हैं सिर लिए गागर

    तुम्हारी इंतज़ारी में

    दरद करती कमर, दिल काँपता है

    बेक़रारी में।

    जहाँ की बादशाही भी जहाँ पर।

    सिर झुकाती है

    उन्हीं कोमल किशोरी का

    दुखा कर दिल

    कभी रस ले सकोगे क्या अरे बेदिल?

    उठे बादल, झुके बादल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दूसरा सप्तक (पृष्ठ 70)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : हरिनारायण व्यास
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2012

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