उसके स्वप्न में जाने का यात्रा-वृत्तांत
uske swapn mein jane ka yatra writtant
राजेश जोशी
Rajesh Joshi
उसके स्वप्न में जाने का यात्रा-वृत्तांत
uske swapn mein jane ka yatra writtant
Rajesh Joshi
राजेश जोशी
और अधिकराजेश जोशी
मैं उसके स्वप्न में जाना चाहता था
वह हरी-हरी क़मीज़ मैंने पहन ली
जो उसे ख़ूब-ख़ूब पसंद थी
जिसकी दोनों जेबों में
रखी जा सकती थीं दो चिड़ियाँ
या दो सफ़ेद चुहियाँ!
तोड़ लिए मैंने उसकी पसंद के फूल
बिना पूछे पौधों से, और
गुच्छे बना लिए!
सनकी थी वह, सनक की हद तक
पसंद था उसे समुद्र
अगर कोई न टोके तो
घंटों, दिनों या शताब्दियों तक
देखती रह सकती थी वह
लहरों का आना-जाना
पोलीथिन की विशाल थैली में
मैंने समुद्र को भर लिया
आप अंदाज़ा भी नहीं कर सकते
कि कैसी तकलीफ़देह बात थी यह
समुद्र के लिए
साथ तो वह हो लिया
पर आशंका लगातार बजती रही उसके दिमाग़ में
कि रात-बिरात इधर से कोई गुज़रा
और नदारद पाया समुद्र को
तो बिना बात का बतंगड़ बन जाएगा
तट के पास से ही मछुआरों से
मैंने एक नाव माँग ली और
बाँध लिया उसे अपने दाहिने कंधे पर
उसका पाल जब हवा में लहराता, तो
लगता जैसे ताज़े कोरे काग़ज़ों पर कोई
महाकाव्य लिख रहा हो!
चाँद मैंने क़मीज़ की एक जेब में रख लिया
दूसरी जेब में क्योंकि सिगरेटें थीं।
इसलिए तारे, वो प्यारे-प्यारे
ढेर सारे सितारे, पैंट की जेबों में भर लिए
तारे! वो गिनती गिनने के खिलौने!
कई बार शुरू किया जिन्हें गिनना
और पूरा-पूरा कभी नहीं गिना
तारे तो तारे थे, मूँगफली नहीं
कि खाता चला जाता
छील-छीलकर
ख़ाली भी नहीं थे मेरे हाथ
फूलों से भरे थे, फूलों से
मेरे हाथ न हों, जैसे हों फूलों से लदे दो वृक्ष!
आख़िरी दिन थे महीने के
चिल्लर की तलाश में हाथ
जेबों में जब कोलंबस हो जाते हैं
सो ऐसी ही फोकट की चीज़ों से भरी जा सकती थीं जेबें!
यह रात तीन बजकर दस मिनट का वक़्त था, सड़क एकदम सुनसान
थी, और मैं उसके स्वप्न में जाने के लिए निकल पड़ा। मैं
इतनी सारी चीज़ों से लदा था, पर लुट जाने के ख़तरे का ख़याल
मुझे एक बार भी नहीं आया, जबकि शहर में राहजनी की घटनाएँ
आए दिन हो रही थीं। और तो और मुझे सड़क के कुत्तों और
गश्ती सिपाहियों का भी ख़याल नहीं आया, रात में घूमने निकलते
हुए जिनकी वजह से बिना भूले जेब में सिनेमा का
आधा फटा टिकट रखे रहना पड़ता था
मैं किसी वृक्ष की तरह अपने हरे-भरे प्रेम में चार हाथ ऊपर तक
डूबा हुआ, आवारा हवा की तरह पूरी मस्ती में था
कपड़े के जूते पहने, चीज़ों से लदे-फँदे मैं बिना कोई आवाज़ किए
उसकी नींद में पहुँचा, जूते मैंने बाहर नहीं उतारे, उसकी
नींद के दरवाज़े पर ऐसी कोई तख़्ती नहीं थी। उसकी आँखों
में दूर तक फैली नींद, मेरे पहुँचने से पहले तक
एकदम स्वप्नविहीन थी
कैलेंडर के तारीख़हीन हिस्सों-सी उस एकदम ख़ाली नींद में
वह ख़ुश थी न उदास। वह 'स्थिर-जीवन' के चित्रों-सी नींद,
एक स्वप्न की प्रतीक्षा-सी थी, आकर्षक पर मौन
और आँखें और बाँहें खोले हुए
मैंने जल नहीं हिलाया, लहर नहीं बनाई
हवा को नहीं कौंचा, पेड़ को नहीं झिंझोड़ा
कि मछलियाँ भागतीं या जागतीं चिड़ियाँ
मैंने सिर्फ़ इतना किया कि हाथ में
थामे फूलों को धीरे-धीरे फैला दिया
उसकी नींद में
धीरे-धीरे
गंध और आश्चर्य से भरने लगी वह
धीरे-धीरे
नींद में जागते हुए
देखा उसने गंध को
फूलों को, मेरी क़मीज़ के हरे रंग को और मुझे
नींद में देखते हुए वह मुस्कुराई, उठी
और हवाई स्पंज चप्पल पहनकर
हवा पर सवार हो गई
मैंने एक बड़े से बादल को पकड़ा
और एक-एक कर तमाम चीज़ें
उस पर सजा दीं।
लेकिन समुद्र को मैं कहाँ रखता?
थैली को उलट देता
तो सोती हुई सारी दुनिया भीग जाती!
नहीं खोली मैंने थैली
नाव में बैठकर हम
थैली में ही उतर गए
बाहर बादल पर, पेपरवेट-सा
रखा था चाँद और
उसके ख़रगोश
बादल के किनारे कुतर रहे थे
या बादल पर उगी दूब!
हम एक-दूसरे के चुंबनों से
ढकते चले गए, होंठ, आँखें
यहाँ तक कि सारा शरीर
ढकता चला गया चुंबनों से
बादल इस बीच उड़कर जाने कहाँ चला गया
जाने कहाँ चली गईं सारी चीज़ें
हाय! स्वर्ग में भी चोरी!
ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना!
लौटा तो बस धूप का एक टुकड़ा था
जो घड़ी की तरह धमका रहा था
झटपट तैयार हो जाओ वरना
ऑफ़िस का वक़्त बजा दूँगा।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 39)
- रचनाकार : राजेश जोशी
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.