नासिक से पुणे की यात्रा, 2006
मिलते हैं सूखे-सूखे कुएँ तड़ाग
सूखी धरती की दरारें धुँधले क्षितिज तक
दुष्काल में मवेशी और मनुष्य चले जाते सिर झुकाए
हकासे-प्यासे गाछ-बिरिछ तड़फड़ाते चिड़ई-चुनमुन
सुंदर साँवरी स्त्रियों के होंठ पपड़िआए
बच्चे उनके कुम्हलाए फूलों सरीखे नतग्रीव
पथराई हुई ध्वनियाँ पत्थर और धूल सब एक रंग आकाश तले
कहीं रास्ता नहीं मिलता सब खोते जाते हैं निर्वर्ण फैलाव में
कुछ-कुछ दूर जाकर पगडंडियाँ उलझ-उलझ जाती हैं
तुमने देखा है झीनी मृत्यु का प्रसार उन धूसर इलाकों में वहाँ
हवाएँ भागती हैं जहाँ निस्सहाय
ज्यों अनवरत पलातक समय की हाय
तुमने देखा है तिमिर की कारा में अनंत विलाप-सा जीवन
तिल-तिलकर छूटती जाती-सी जीने की अभिलाषा
धीरे-धीरे राख-सी झरती नीरवता की गूँज हर तरफ़ बिछती राख-राख
देखी हैं तुमने उतरती हुईं केंचुल-सी संवेदना की परतें एक-एक कर
अपनी भाषा और बुद्धि के इलाक़ों में
अंत में बचा रह जाता है हृदय की जगह चीमड़ काठ करियाता जहाँ
निर्लज्ज ख़ुशगप्पियों में
पूछता हूँ किस-किससे फिर भी सभ्यता इतिहास के घमासान में
स्मृति के बियाबान में
तुमने देखा है पूछता हूँ बार-बार देखा है देखा है
जाने किस-किसकी आत्मा के स्थापत्य पर चकित होता
चुप की विराटता पर धुआँ-धुआँ सीझता विषाद में बेचैन बचा-खुचा
थमता कभी-कभी वाक्यों की लंबी होती छायाओं में।
- रचनाकार : पंकज सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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