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तुम जैसी स्त्री

tum jaisi istri

अनुराग अनंत

अनुराग अनंत

तुम जैसी स्त्री

अनुराग अनंत

और अधिकअनुराग अनंत

    तुम मुक्तिबोध की कविता की तरह थीं

    समझने में कठिन

    लेकिन हर मोड़ पर मोह लेने वाली

    तुम मुझे बात बात पर चाक पर चढ़ा देती थीं

    मेरी मिट्टी में अलग-अलग मूर्तियाँ उभरने लगती थीं

    मैं कील की तरह अपनी छाती में धँसता था

    और ख़ुद के खोल को ख़ुद में टिका कर टाँग देता था

    एक बात बताऊँ बहुत दर्द होता है

    इस क्रिया में

    यह ऐसा था कि मेरे कानों में जलमृदंग बज रहे हों

    और मैं हँसते हुए अपनी खाल उतार रहा हूँ

    और कील तो मैं था ही

    इस दोषपूर्ण जगत में मैंने दोष देखना नहीं सीखा था

    इसलिए कमोबेश अंधा ही था मैं

    इस बात को मैं जानता था कि देखे बिना भी चीज़ें जानी जा सकती हैं

    अवाज़ को टटोल कर, आत्मा को छू कर और किसी के भीतर उतर कर

    तुम जानती हो तुम्हारे भीतर बहुत नम मिट्टी है

    शायद बहुत रोई हो तुम भीतर भीतर

    मैं गँगा के किनारे का हूँ

    इसलिए नम माटी से हृदय लगा बैठता हूँ

    मेरी स्मृतियों के पाँव

    और मन की नाव उसी तट पर टिके हैं

    जहाँ बैठ कर तुम रोई हो

    हर कविता में कविता हो ये ज़रूरी नहीं

    ठीक वैसे जैसे हर प्रेम में प्रेम

    हर हाँ में हाँ

    और हर में

    जीवन श्याम-श्वेत कभी नहीं रहा

    तो कैसे ऐसे परिभाषा के खाँचे जीवन को समेट पाते

    मैं जो ये कह रहा हूँ

    ठीक इसी समय

    भीतर एक स्त्री पाथ रही है उपले

    और मेरे माथे पर पड़ रहे हैं निशान

    जब अकेलेपन का अकाल पड़ता है

    मैं अपने माथे पर महसूस करता हूँ उसी स्त्री की उँगलियाँ

    बदलने लगता हूँ उपले में

    झोंक देता हूँ ख़ुद को आग में

    आग भूख मिटाती है और दुःख भी

    आग विदाई का रथ भी है

    और दीपक की आभा भी

    और विद्वान कहते हैं कि आग मुक्तिबोध की कविता भी है

    तो तुम भी तो आग हुई

    एक दिन आएगा जब मैं तुममें समाऊँगा और विदा हो जाऊँगा

    जैसे कोई उपला राख होता है अग्नि में

    तुमने और तुम जैसी स्त्रियों ने सृजा है मुझे

    तुम्हें और तुम जैसी स्त्रियों को ही अधिकार है

    कि मुझे भस्म करें, मिटाएँ, राख कर दें।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुराग अनंत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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