(एक)
देखकर सहसा हमारी साधना म्रियमाण—
जिस कमंडलु के अमृत ने थे बचाए प्राण।
वह तुम्हारे हाथ में था साधु तुलसीदास!
जी उठी फिर भावना, दृढ़ हो गया विश्वास॥
जब तपोमय शून्य में भय दृश्य थे सब ओर,
जब निराशा की घटाएँ कर रहीं थीं घोर।
तब तुम्हीं ने था किया मानस-सरोज-विकास,
कवि कहें या रवि तुम्हें हे अमर तुलसीदास!
हो गया जब आदि-कवि का मार्ग दुर्गमनीय,
सुगम तुमने ही किया करके उसे कमनीय।
मुक्त जीवन-धन लिए हो जाएँगे हम पार,
देखता रह जाएगा संसार-पारावार!
रम्य रामचरित्र भी तुमसे हुआ कृतकार्य,
आर्द्र होते हैं जिसे सुन आर्य और अनार्य।
काव्य से इतिहास है, इतिहास से हैं तंत्र,
तंत्र से फिर हैं तुम्हारे वाक्य वैदिक मंत्र!
पैठ संस्कृत-सिंधु में पाए जहाँ जो रत्न—
ग्रथित करने में उन्हें करके अलौकिक यत्न।
हार जो तुमने दिए इस देश को उपहार—
कर सकेगा कौन उनके मूल्य का निर्धार?
प्रस्फुटित करके हमारा पुण्य पूर्णादर्श,
हृदय को तुमने दिया है अमृत-हस्तस्पर्श।
राम राजा ही नहीं, पूर्णवतार पवित्र,
पर न हमसे भिन्न है साकेत का गृहचित्र॥
है हमारे अर्थ बस आदर्श ही आराध्य,
और साधन भी उसी का है हमारा साध्य।
जो हमारे सामने कर दे उसे प्रतिभात,
है वही तुम-सा हमारा विश्व-कवि विख्यात॥
प्रकृति-पट पर धन्य वह अंतर्जगत का दृश्य,
धन्य वह संगीतमय सत्काव्य हृदय-स्पर्श।
धन्य भारतवर्ष का प्रतिभा-प्रकाश-विलास,
धन्य रामचरित्र मानस, धन्य तुलसीदास!
(दो)
कवे, तुम्हारी पुण्य-स्मृति से
सचमुच हम सब शुचि होते हैं,
सुकृति, तुम्हारी अविकृति कृति से
कोटि-कोटि कल्मष धोते हैं।
तुम्हें विश्व ने कुछ न दान कर
धन जन साधन हीन किया था,
तुमने उसको दीन जान कर
कितना गौरव ज्ञान दिया था।
तुममें इतना प्रेम भरा था
जो भुजंग को रज्जु बनाया,
पर विषयों में कुछ न धरा था,
तुमने उससे प्रभु को पाया।
साधु तुम्हारी प्रेत-साधना
परमात्मा में परिणति जिसकी,
विश्व-हेतु विभु-गुणाराधना
करती है यों शुभमति किसकी?
शब्द शिल्पि, चिर कविता-मंदिर
तुमने जो निर्माण किया है,
भ्रांत श्रांत जीवों का फिर-फिर
उसने कितना त्राण किया है।
वह मानस आदर्श तुम्हारा,
मनस्ताप सब हट जाता है;
उसमें रामचरित-रस-धारा
पाप आप ही कट जाता है।
दास हुए तुम जिसके आकर
घर-घर क्यों न पुजे वह तुलसी,
धन्य हुई तुम-सा सुत पाकर
प्यारी मातृभूमि माँ तुलसी।
- पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 146)
- संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
- रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
- संस्करण : 1994
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