पिछले कुछ अरसे से
pichhle kuch arse se
पिछले कुछ अरसे से
मैं देख रहा था कि
मेरी इस नज़्म का भी...
मेरी ही तरह कुछ-कुछ
रंग कच्चा-सा रहता है
ख़ुराक भी गिरने लगी
आमद भी बहुत कम है
थोड़ी-सी चढ़ाई से
दम फूलने लगता है
अपने ही वज़न से अब
अल्फ़ाज़ नहीं उठते
मिसरों की महक में भी
बाँहें जब खुलती हैं
आफ़ाक़ नहीं छूतीं...
कुछ ‘क्रेम्प’ से पड़ते हैं
दिखलाया तबीबों को
सब टेस्ट हुए उसके
तब सारे तबीबों ने
आपस में सलाह की और
सरग़ोशी के लहजे में
इतना ही कहा मुझसे—
“इस नज़्म को कैंसर है
इस नज़्म के बचने की
उम्मीद बहुत कम है!”
- पुस्तक : पाजी नज़्में (पृष्ठ 46)
- रचनाकार : गुलज़ार
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2019
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