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दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता

december ka mahina mujhe akhiri nahin lagta

निर्मला गर्ग

निर्मला गर्ग

दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता

निर्मला गर्ग

दिसंबर सर्द है ज़्यादा इस बार

पहाड़ों पर बर्फ़ गिर रही है लगातार...

दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता

आख़िरी नहीं लगतीं उसकी शामें

नई भोर की गुज़र चुकी रात नहीं है यह

भूमिका है उसकी

इस सर्द महीने के रूखे चेहरे पर

यात्रा की धूल है

फटी एड़ियों में इस यात्रा की निरंतरता

दिसंबर के पास सारे महीने छोड़ जाते हैं

अपनी कोई कोई चीज़

जुलाई बरिश

नवंबर पतझड़

मार्च सुगम संगीत

तेज़ ठंड ने फ़िलहाल धकेल दिया है सभी चीज़ों को

पृष्ठभूमि में

“पारा शून्य को छूते-छूते रह गया है”

समाचारों में बताया गया

ऐसी ही एक सुबह मैं देखती हूँ

एक तस्वीर

रात है... कुहरा छाया है

अनमना हो आया है कुहरे में बिजली का खंबा

चादर ओढ़े फ़ुटपाथ पर कोई सो रहा है

नीचे लिखा है :

जिन्हें नाज़ है हिंद पर...!

स्रोत :
  • पुस्तक : दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता (पृष्ठ 113)
  • रचनाकार : निर्मला गर्ग
  • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
  • संस्करण : 2012

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