किनको देश कभी माफ़ नहीं करेगा
kinko desh kabhi maf nahin karega
हमारी नींद जड़ों का तकिया लगाती है
और पेड़ की तरह सपने देखती है
मैं अपने शहर अपनी नदी को बहुत पुराना मानता हूँ
और दूसरों के शहर दूसरों की नदी को अपना मानता हूँ
सपने के बाहर नदी के तट पर लगातार धुआँ उठ रहा है
एक बूढ़ा शहनाई बजाते-बजाते घाट की सीढ़ी पर सर रखकर सो गया
उसकी नींद पत्थर का तकिया लगाती थी
और नदी के सपने देखती थी
उसकी शहनाई पानी का गाना गाती थी
उसके साज़ का पानी देश पर बरसता था
और आग बुझ जाती थी
माँ बताती है अब हर चीज़ में आग लगी हुई है
नदी में आग है शहर जल रहा है
नींद की आग आँखों से बरसती है
हमारा संसार हार खाकर ज़हर से भर गया है
और लोग लोगों को अपरिचय के संदेह के साथ देखते हैं
घर अब दोस्तों का नहीं रिश्तेदारों का है
वे आते हैं सुख की ढलान पर लुढ़कते हुए गोलमटोल
लड़कियों की शादियाँ अनंतकाल से तय नहीं हो पा रही हैं
और प्रेम उनके लिए लोकतांत्रिक अधिकार नहीं भूमिगत कार्रवाई है
आप अपने लिए शहर का कोई नक़्शा नहीं बना पाते
क्योंकि शहर आपसे भी तेज़ी से बदल रहा है
और नक़्शे सात समुंदर पार बनते हैं
ऐसे में, अप्रत्याशित जीवन व्यवहारों पर कुछ सपाट वाक्य
लिख या कह दिए जाते हैं
जैसे, ‘आतंकवादियों की घिनौनी हरकत को देश कभी माफ़ नहीं करेगा’
- पुस्तक : फिर भी कुछ लोग (पृष्ठ 64)
- रचनाकार : व्योमेश शुक्ल
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2009
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