कविता पुष्पक
kawita pushpak
गगन के नक्षत्र
उपवन के पुष्प-पत्र
आपस में मिल कर हैं रहते
मानव क्यों लड़ पड़ते?
सूरज से इंदु लड़ता नहीं
एक धर्मी से दूसरा धर्मी लड़े क्यों?
उपवन के सुमन यदि लड़ पड़ें तो
उपवन रण का मैदान बन जाएगा
सुगंध का पता नहीं रहेगा
शवों की दुर्गंध बढ़ जाएगी
उपवन सम इस जगत् को
मत बनाओ रेगिस्तान रे!
चाँद की बोली बोलो रे
सभी समझ पाएँगे रे
सब कोई समझ सके
बोली नव बोलो रे!
सरोवर का कुमुद खामोश हो बोलता है
उषःकाल का दिवाकर पूरब के गिरि से निकलते
किसी नए संदेश को देता है
वही अलसी बोली है रे
द्वेष भाव पोषक बोली नहीं चाहिए रे
प्रेम को उभारे जो वह मधुर बोली चाहिए रे
हे सखी! तू किसी भी बोली में
आँख मार दे, मैं समझ जाता हूँ
मेरे देस की सभी बोलियाँ मेरी अपनी हैं
समझूँ या नहीं फिर भी मेरी अपनी हैं
हिम मालाओं से दूर हो, वे मेरी हैं
सागर से भले ही दूर हों, तो भी वे मेरी हैं
जानते हो मेरे पुराने मित्रवरों को?
ग़ालिब- कालिदास
फिर नए मित्रवर
नज़रुल इस्लाम-टैगोर
सच्चा नागरिक भाषा-भेद से अतीत है
भेद और वाद से परे
रहने वाला ही सच्चा मनुज है।
***
अच्छी कविता जिस भाषा में हो वह मेरी भाषा है
अच्छा कवि ही मेरा अपना मित्र है
उर्दू और तेलुगु मेरी दो आँखें हैं
इनसे मैं सभी भाषाएँ पढ़ सकता हूँ
हृदय एक हो तो जगत् भी लगता है एक
हृदय को टुकड़ों में मत बाँट
कलेजे को एक-सा काम करने दे
नहीं तो दिल की बीमारी आएगी
यह बिमारी मौत को साथ लाती है
दिल को बीमारी से अलग रख
उसे स्वस्थ रहने दे
सभी भाषियों का आदर कर
सभी भाषियों को मान प्रदान कर।
***
तेरा हृदय विभिन्न संस्कृतियों का संगमस्थल है
इस रंगमंच पर कंब और कबीर
कविता पाठ करते हैं मिलकर
हर दिन हर हृदय में अखिल भारतीय
कवि-सम्मेलन हो
एकता को भंग करने वाली
राजनीति का विस्मरण कर
आपस में लड़ाने वाले
धर्म का विसर्जन कर
एकता वर्धक कविता-सौध की ओर आ जा
यह कविता-सौध पुष्पक विमान-सा है
सब के लिए इसमें जगह है
सभी भाषा -भाषियो आओ रे!
हमारे पुष्पक विमान में
आनंद-जगत् के संचार-हित चल पड़ेंगे
वह यहीं से निकल पड़ेगा
सच्चा हृदय ही इसमें चलने के लिए
योग्यता का टिकट है
हमें धन की ज़रूरत नहीं है
एकता नामक पेट्रोल से वह उड़ता है
एकता मिट जाए तो वह गिर पड़ता है
अत: हम एक हो कर रहें, एक हो कर कविता सुनें
इस लोक को स्वर्ग बना विचण करें।
- पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 132)
- संपादक : माधवराव
- रचनाकार : दाशरथि
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
- संस्करण : 1985
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