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ताजमहल

tajamhal

मोहन सिंह

मोहन सिंह

ताजमहल

मोहन सिंह

और अधिकमोहन सिंह

    श्वेत धवल रंगीन संगमरमर के गले में

    डालकर बाँहें

    मृदुल महीन चाँद की किरणें

    सोईं बेपरवाह-सी

    पेड़ों-पौधों की प्रतिछाया

    मद में मुग्ध पड़ी है

    घास के तिनकों की छाती पर

    आनंदित अलसाई-सी

    पेड़ों की टहनी से लिपट लताएँ

    कलियाँ भी सोई हैं

    कलियों के संग गंध सो रही

    नींद में ज्यों खोई है

    यमुना तट हैं शांत सो रहे

    हरे-भरे और काले

    निद्रा में जलधार डूबती

    बाँहों में सँभाले

    सोए जल में सुप्त-सा लगा

    ताजमहल का साया

    मानो यमुना-हरण के लिए

    बाहुपाश में आया

    लेकिन दूर सागर के तट तक

    नाच रही जब वह

    निद्रा के सम्मोहन में

    लय भी उसकी है खोई

    सोए से मौसम में

    बस इक मैं जाग रहा हूँ

    आँखें मेरी खुली फटी-सी

    ज्यों चिराग़ जलते हैं

    गुंबद के उभरे कोनों पर

    मस्ताई अलसाई

    घूम रही थीं मेरी नज़रें

    मनचली ज्यों हो आईं

    देख कला मुग़लों की मोहित

    बढ़े अचंभा भारी

    शाहजहाँ की हुस्न-परस्ती पर

    मैं बारी-बारी

    इतने में गुंबद कलश

    खंड-खंड हो आया

    चीखें-चिल्लाहट आख़िर तक

    ज्यों विनय कर रहा, भाया

    मेला श्रमिक बालाओं का

    थे संग मज़दूर हज़ारों

    दुरमुट, तेसे, कस्सी, कुदालें

    सजे हैं बीच क़तारें

    करते कुछ स्तनपान शिशु

    और व्यस्त लगी माताएँ

    आँखों में आँसू छलके

    छाती में भरी हवाएँ

    मोटे ऊँचे पेट थे उनके

    पतले सिर धड़ जिनके

    हाथों में छालों की लय है

    पाँव बिवाइयों वाले

    काम ले रहे लोग पीटते

    घायल तक कर जाते

    मासूमों के जिस्मों पर

    निशान छोड़ते जाते

    ऐसे श्रमिकों की एक झलक

    मुझे जो पड़ी दिखाई

    पीड़ा से आहत होती-सी

    आत्मा यों चिल्लाई।

    क्या वह रूप, सत्य सुंदर है

    अथवा एक छलावा

    लाख ग़रीबों मज़दूरों का

    यह उपयुक्त दिखावा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 71)
    • रचनाकार : मोहन सिंह के साथ अनुवादक फूलचंद मानव और योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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