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रोशनियाँ

roshaniyan

अनुवाद : सुरेश सलिल

अर्नेस्तो कार्देनाल

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और अधिकअर्नेस्तो कार्देनाल

    रात के दौरान वह बेहद गोपनीय उड़ान।

    हमें मार गिराया जा सकता था।

    रात निस्तब्ध और निरभ्र।

    आकाश में तारों का सघन जाल।

    रोशनदान के मोटे शीशे के पार आकाशगंगा की इतनी चमकार

    कि अपने करोड़ों-करोड़ सृष्टिकारी-क्रांतिकारी परिवर्तनों के साथ

    निशांधकार में दपदपाती रजतराशि हो मानों।

    सोमोज़ा की वायुसेना से बचते हुए

    सागर के ऊपर से उड़ रहे थे हम।

    तट-रेखा हालाँकि थी बहुत क़रीब।

    मंद-मंद चाल थी और

    काफ़ी नीचाई पर था वह हमारा छोटा-सा यान।

    दीखीं सबसे पहले रोशनियाँ रिवास की

    कई-कई बार जिसे छीन चुके थे दुश्मन से सांदिनिस्ता क्रांतिकारी

    और जो अब लगभग उनके ही नियंत्रण में था।

    उसके बाद और-और रोशनियाँ—

    ग्रानादा की, जिस पर अभी भी दुश्मन का क़ब्ज़ा था

    (उसी रात किंतु वहाँ धावा बोला जाना था)

    मसाया की, जो हो चुका था पूरी तरह मुक्त

    अनगिनत शहादतें दे चुकने के बाद।

    और आगे, काफ़ी दूर, रोशनी का एक चमकदार घेरा :

    मानागुआ, कितनी ही लड़ाइयाँ जो देख और झेल चुका

    (साक्षात् 'बंकर') अभी भी दुश्मन की मज़बूत गिरफ़्त में।

    फिर, मुक्त क्षेत्र दिरिअंबा की रोशनियाँ,

    रोशनियाँ जिनोतेपे की, जहाँ अभी भी जारी है लड़ाई।

    कितना-कितना धैर्य सहेजे हैं वहाँ की रोशनियाँ!

    और, 'वो देखिए मोंतलिमार!' पायलट बताता है,

    सागर से सटा हुआ— दुश्मन का ताल्लुक़ा।

    उसके बाद पुर्ते सोमोज़ा...

    ऊपर आकाशगंगा और निकारागुआई क्रांति का आलोकपुंज।

    उधर दूर-उत्तर में— शायद वह सांदिनों-शिविर की उजेली है!

    ('हाँ, वे सांदिनों की रोशनियाँ हैं!')

    हमारे ऊपर अनंत दूरी तक फैले हैं तारे

    और इधर, नीचे, एक छोटा-सा ज़मीनी इलाक़ा

    जो अपने छोटेपन के बावजूद ख़ासी अहमियत वाला है।

    इंसान द्वारा हासिल की गई ये नन्हीं-नन्हीं रोशनियाँ—

    मानो हर चीज़ रोशनी में तब्दील हो गई हो!

    यह भूमंडल, जो कि सूर्य से जन्मा है,

    रोशनी का ही एक प्रतिरूप है ठोस।

    विद्युत की जिस ऊर्जा से गतिमान है यह विमान

    उसका भी मौलिक नाम है रोशनी।

    बना है विमान यह जिस धातु से, रोशनी का ही एक रूप है वह भी।

    जीवन की ऊष्मा हमें सूर्य से मिलती है—

    'तो फिर होने दो सब कुछ को रोशन!'

    लेकिन रोशनी के बरअक्स अँधेरा भी है!

    रोशनदानों की साफ़-शफ़्फ़ाफ़ सतह पर, पता नहीं कहाँ से

    किस चीज़ की पड़ रही हैं अजनबी परछाइयाँ...

    उधर वह सुर्ख लाल दीप्ति? वह है विमान की पिच्छल रोशनियों की

    और वे, धीर-गंभीर सागर के वक्ष पर बनते-बिगड़ते प्रतिबिंब?

    —वे हैं आसमान में टँके तारे।

    मेरा ध्यान अपनी सुलगती हुई सिगरेट पर जाता है

    यह लपक भी सूरज से आई है—एक तारे से।

    और वह जो दीख रहा ख़ाका किसी विशाल जलपोत का-सा?

    क्या वह अमेरिकी विमानवाहक है प्रशांत क्षेत्र की निगरानी पर तैनात?

    उधर दक्षिण पार्श्व से एकाएक प्रकट होती एक वृहदाकार रोशनी

    हमें हत्प्रभ कर जाती है।

    क्या यह कोई हमलावर जेट है? नहीं, यह चंद्र उदित हो रहा है—

    अर्धचंद्र, सूर्य से प्रकाशित, और कितना शांतिप्रद!

    ऐसी उजेली रात में उड़ान पर निकलने के अपने ख़तरे हैं।

    और तभी अकस्मात् गूँजने लग जाते है रेडियो—संदेश

    ढेरोंढेर बेतरतीब शब्द, भरते हुए उस लघुकाय विमान को।

    ये उ‌द्घोषणाएँ क्या दुश्मन-दल की हैं?

    'नहीं, हमारे अपने मुक्तियोद्धाओं की!' पायलट बताता है,

    अब वे हमारी वेव-लेंग्थ पर हैं।

    इसका तो अर्थ हुआ कि अब हम लियॉन के क़रीबतर पहुँचे—

    पूर्णतया मुक्तक्षेत्र!

    तभी दीखी दहकती हुई सी एक ललछौं-नारंगी रोशनी,

    मानों हो किसी सिगार का अंगारे जैसा दपदपाता सिरा—

    यानी कि कोरितो।

    गोदियों की ताक़तवर रोशनियाँ—सागर में झिलमिल-झिलमिल।

    और, लो, अंत में पहुँचा 'पोनलोया-बीच'!

    अब ज़मीनी इलाक़े में दाख़िल हो रहा है विमान।

    चाँदनी की उजास में, तट के साथ-साथ, रुपहले साँपों जैसी

    चमकती फ़ेनराशि।

    विमान नीचे उतर रहा है और किसी कीटनाशक की-सी गंध

    साँस में घुल रही है।

    सर्ख़ियो बताता है, 'यह निकारागुआ की गंध है!'

    बेहद ख़तरनाक क्षण है यह!

    मुमकिन है, नीचे हवाई अड्डे पर, हम पर तैनात हो

    दुश्मन का कोई हवाई जहाज़!

    और आख़िरश् जाती हैं हवाईअड्‌डे की रोशनियाँ।

    हमारा विमान हवाईपट्टी पर लगा है

    और अँधेरे को चीरते हुए, जैतूनी हरी वर्दी से लैस कामरेड

    रहे हैं हमारी ओर, आलिंगनबद्ध होकर अभिवादन करने।

    हमें महसूस होती है उनके जिस्म की गर्माहट—

    वह भी तो सूर्य की ही देन है

    उसका भी तो एक नाम है रोशनी!

    आख़िरकार अँधेरे से ही तो जूझ रही है यह क्रांति!...

    यह था 18 जुलाई का अरुण प्रभात

    और उस सबका आरंभ

    जो कि, बस, आने-आने को था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 348)
    • रचनाकार : अर्नेस्तो कार्देनाल
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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