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लेनिन का सखुआ

lenin ka sakhua

अनुवाद : सुरेश सलिल

अंद्रेई वोज़्नेसेंस्की

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अंद्रेई वोज़्नेसेंस्की

लेनिन का सखुआ

अंद्रेई वोज़्नेसेंस्की

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    मोटरकारों से उफनते शहर कैलिफ़ोर्निया में

    सूरज, दावे से कहता हूँ, गंधा-बिरोजा की गंध छोड़ता है।

    वहाँ बाहरी इलाक़े में एक बाग़ है

    जिसमें सखुआ के दरख़्त हैं...

    पुराने वक़्त के बाग़ों जैसा सघन और चौरस।

    उनमें से एक सखुआ लेनिन की स्मृति को

    समर्पित किया गया...

    हैं! लेनिन? या ख़ुदा!

    बरपा हो गया क़हर... लेनिन को? नहीं!

    यह तो कलंक है! पकड़ो स्सालों को! जाने पाएँ बच कर!

    लाल जीभ वाले ठिगनी नस्ल के कुत्ते जैसा

    शहर का शैरिफ़ पतलून की बटनें बंद किए बग़ैर ही

    हाँफ़ता और बत्तख़ की तरह कुदकता

    जा घुसा मेयर के दफ़्तर में :

    'बॉस, बग़ावत! हप्... एक मास्कोई साज़िश!!

    मैं छोड़ूँगा नहीं, कहे देता हूँ...

    'क्या!!'

    हाँफ़ उठा मेयर भी, 'यह तो ग़ज़ब हो गया!'

    फिर हड़बड़ी के साथ, 'अरे मेरा सिगार!

    लील लिया मैंने उसे... और ख़ौफ़ से भरकर

    भागा वह वहाँ से— जा कूदा सीधे नदी में।

    साइरन चीख़ उठे, गरज उठे झाम

    हुआ उठे तलघरों में कुँजड़े—ज्जाम

    पीछे छोड़ते हुए दुकानें और बैंक

    रेंग उठे सड़कों पर, चमकीले कछुओं-जैसे टैंक

    ... ... ...

    बग़ावत? शुक्रिया, हम उसे करेंगे नाकाम।

    कहाँ है वह सखुआ?—हो गया उसका काम तमाम!

    इतनी सफ़ाई से अंजाम दिया गया था वह सब

    कि कोई दरख़्त था, नामपट्ट,

    बचा था महज़ एक गड्‌ढा अब।

    कोई दरख़्त नहीं?

    लेकिन वह तो है बेशक वहीं!

    आधी रात के वक़्त, रोज़ाना, वह प्रकट होता है

    अंपायर स्टेट बिल्डिंग के ऊपर

    उसका किरीट एक चमकीला पैराशूट

    उसका भरा-पूरा और मोटा तना एक खोजबत्ती

    फेंकती हुई प्रकाश की महाकिरणें, सजीव और प्रभायुक्त।

    नहीं है वहाँ सखुआ?

    है, बेशक है!

    मास्को के आकाश में चमकीली पत्तियों की भाँति

    आग्नेयास्त्रों की बाढ़ लहकती हुई।

    दरअस्ल, हममें से हरेक के

    अपने-अपने सखुआ हैं।

    ... 'हम छिटकाते हैं बीज सम्मान और सच्चेपन के।

    मेरा वफ़ादार और दुलरुआ दोस्त है वह सखुआ,

    मेरा सखा और पथप्रदर्शक प्रकाश।

    कहीं भी कैसी भी हालत में क्यों होऊँ मैं

    ज़िंदगी की सारी अफ़रातफ़री और शोरशराबे,

    ऊँच-नीच, मेलों-ठेलों, उसकी ख़ुशियों और

    चढ़ी त्योरियों के बीच,

    इस सुखद विचार से लबरेज़ हूँ मैं

    कि चाहे कष्ट में होऊँ

    और चाहे शांत-प्रसन्न,

    सरोवर-स्नान की भाँति में

    सखुआ की छाया में, प्रज्ञा की वाणी से पुनर्जीवन पा

    उभर सकता हूँ।

    नहीं है वहाँ सखुआ?

    है, बेशक है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रोशनी की खिड़कियाँ (पृष्ठ 423)
    • रचनाकार : अंद्रेई वोज़्नेसेंस्की
    • प्रकाशन : मेधा बुक्स
    • संस्करण : 2003

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