सुजाता से—
sujata se—
तुम्हारी ओर बढ़ते हुए की गिरह खुल रही है
जन-मानस कविता को अपना चुका है
मेरी समझ से परे है आज की प्रेम-कविता
आज से पहले की भी और सबसे पहली प्रेम-कविता भी
मेरी समझ का कासा नहीं भर पाती है
उसमें किसी ग़रीब का झाँकना रह जाता है शेष
शेष नहीं रहना चाहिए प्रेम में कुछ भी
चिड़ियों को बैठे नहीं रह जाना है
पेड़ों को भी जगह बदलनी पड़ सकती है
चले जाना होगा पहाड़ों को दूसरे मरुस्थल को नहलाने
किसी खिड़की से देखी गई सड़क में
सड़क को होना पड़ेगा उपस्थित
बच्चों की बस आ-जा सके उस समय पर
इस व्यवहार को आते-जाते रहना पड़ेगा
शेष नहीं रहना चाहिए खिड़की को भी पीछे घर में
उसे दूसरे दीवाल-घर में से देखने चाहिए
एक-दूसरे की सहायता करते वे लोग जिन्हें हमारे समय में
देखा जाना अनिवार्य है जैसे अनिवार्य है
प्रेम-कविता में इस तरह के दृश्यों का लिखे जाना
प्रेम क्या है? त्वचा है :
तुम्हारी उपस्थिति जिस भी वस्तु को
छू रही हो वह त्वचा है तुम्हारी
तुम्हारे मीठे नयनों से देखा जा रहा हो कोई आंदोलन
तो वह भी स्थान है मेरे विषय-वस्तु का
प्रेम में पीछे जैसा कोई स्थान नहीं है—
मेरी कल्पना में
प्रेम में रहते हुए मेरी दुनिया आगे बढ़ती
लोग हाथ मिलाते हुए साथ भले ही चल रहे हों पर पीछे नहीं
कोई भी घर पीछे छूटा हो यह नहीं लगता
बच्चों का स्कूल जाता रिक्शा
मेरे बचपन से आगे निकल जाता है
मैं भी उस रिक्शे के साथ आगे हो लेता हूँ
पीछे नहीं रह जाता
बारिश मेरे आगे पड़ रही होती है उन खेतों पर
जिन पर मैं सूखे की, अकाल की कविताएँ लिखता उदास होता
उदास होता हूँ पर चलते रहते हुए
मेरे आगे लोग कुचले जाते हैं—
सरकार और न्यायपालिका से
हत्यारे आगे आ-आकर रेत जाते हैं
कॉलेजों के आगे बैठे
सामने से बात करने वाले सीधी-साधी माँओं के
पढ़े-लिखे बेटी-बेटों को उनके पढ़े-लिखे होने का मर जाने से
पहले कोई उपयोग नहीं रह जाता है
यह सब भी होता रहता है मेरे आगे ही
यह भी देखता हूँ प्रेम-कविता ही में तुम्हारे साथ-साथ
तुम्हारे हाथ को पकड़े हुए
हर बात पर ग़ौर किया जा सकता है
(किया जाना चाहिए)
तुम्हारा हाथ है, कोई वातानुकूलित पत्रकारिता तो है नहीं
कि जब चाहा स्वाद-अनुसार तापमान घटा-बढ़ा लिया
यह टुच्चई है, कविताई नहीं
कविताई है हरे का वसंत में फैलना नगर की भुजाओं पर
नगर की क्रियाओं में हर-भर जाना
दिसंबर जैसे प्रेम में अप्रैल का आना, कविताई है
आता ही है अप्रैल, आता ही है और भी आने वाला महीना
गिरता है जिस पत्ते को धूप जकड़ती है अपनी बाँह में
सेंकता हो जिसे प्रेम वह घड़ा गर्म हो-हो टूटता है
टूटना क्यों बुरा है? टूटना ही घड़ा है
पानी तो पहुँच चुका होगा सूखे गले तक यह आशा
टूटे घड़े के टूटने में रहनी चाहिए
मेरे आगे नहीं रह जाना चाहिए
कोई प्यासा इतना लिखा हुआ
तो साकार हो ही सकता है मान के नहीं
जान के चलता हूँ
तुम्हारे साथ रहते हुए प्रेम में हर एक आकांक्षा
दूसरे सभी के स्वाभिमान उनके मत उनके निर्णय अपने आगे
मेरे शेष रहे अनिवार्य कार्यों की तरह देखता हूँ
तुम्हारी देह-प्रेरित अपनी स्मृति-क्रीड़ा में खेल-खेल में
दुनिया को अपनी जगह भर जितना बदलने का प्रयास निभाता हूँ
यह प्रयास खेल नहीं,
बल्कि गहन चिंतन-सा दिल में
रह जाता है बचपन के मेरे अनुभव पर
सफ़ेद कपड़े पर दूसरे रंग के
कपड़ों का छूटा हुआ धुलाई में कूटा हुआ रंग
बचपन के अनुभव में जैसे लगता था कि
जब सोचूँगा तब जेब में अनिवार्य रुपये-पैसे आ जाएँगे
नहीं आए यह भी सत्य है
पर सोचने में कोई ख़र्चा हुआ हो यह याद नहीं आता
मेरे आगे बल्कि दिखाई दिए और भी सुखद अवसर
मन हुआ और भी सोचने का दूसरे के हित में
घरवालों के भाई-बहनों के नानी के अध्यापिकाओं के हित में
सोचने के द्वार खुले जब इतना भी नहीं आता था
कि किस तरह बाँधते हैं जूतों के तस्मे
बताते हैं कैसे घड़ी के दो काँटे में फँसा समय का आसान हल
नहीं आता था जब थोड़ा-बहुत भी मुझे
संसार के आगे पड़ा हुआ वह काम जो था बच्चों की तरह का
तब संसार में न हो सकने वाले काम अपने मन में
संभव पाता था
आज यह बात प्रेम-कविता में होना अनिवार्य पाता हूँ
आज जब तुम नहीं हो यह लिखते हुए
मेरे बग़ल में बैठी किसी किताब में डाले हुए अपना मुँह
अपने मन अंदर संभव पाता हूँ तुम्हारे साथ होने के साथ-साथ
संसार में अपने दायित्व का साकार होना भी
प्रेम-कविता में ही मिलता है
शेष सभी कविताओं का उपहार
उन्हें नहीं रहने देता हूँ शेष
भेज देता हूँ उन्हें अपने-अपने काम पर उनके पास
जिन्हें लगता होगा कि कविताओं का काम बहुत कम है
उनके सारे काम करने का प्रयत्न स्वयं करता हूँ
कविता में लिखता हूँ, आशा करता हूँ
मेरे अंदर किसी बच्चे को
अभी दौड़ता देखूँगा वह दूरी जो वास्तविकता में
दौड़ी न जा सकी है मनुष्यों से
कार से फ़ोन से ट्रेन से भी नहीं तय कर पाए मनुष्य वह जो
दो क़दम आगे रखने पर मिल जाता, पुष्प खिल जाता
खिलेगा, पर थोड़ी देर है सुजाता
तुम किताब पढ़ो, दुनिया अभी किताबें खोल रही है
काग़ज़ टटोल रही है
यह कहना मुश्किल है आज दुनिया में किसी से—
आपका देश भी अच्छा है
क्योंकि अपना ही देश असल मायनों में अच्छाई के कासे में
देखा नहीं, और देश में वर्तमान समाज का परिवेश
फ़िट बैठा नहीं
मुँह से निकले तो किस मुँह से कि आपका सम्मान करता हूँ
अपना ही सम्मान करने में चूक होती रही
अपने आगे हर एक को धिक्कार दिया, नकार दिया
अपने अंदर इतना भी प्रेम पाया नहीं कि कान उधार दिया हो
काँधे पर धर के हाथ छूटा हो कोई वाक्य जिसमें
अपने प्रति पहले सम्मानसूचक कोई बात अपना परिचय दे
नहीं कहा, नहीं दिया सम्मान अपने आप को
दूसरे के लिए दिया जाने वाला प्रेम
पहले अपने साथ किया जाता है, यह नहीं समझा गया
इस तरह की प्रेम-कविताओं के अभाव में पीछे रह गया देश
देस में जन-मानस अपना चुका है पुर-टुच्चई
और कविताई बाहर खिड़की से न दिखने वाली सड़क पर
न होने वाले बच्चों के संग उस रिक्शा के इंतज़ार में
इस कविता में है सभी एक साथ लेकिन सभी एक हाथ आगे
निकाले ड्रॉइंग वाली कॉपी में होमवर्क में बनाना था
घरवालों के साथ घर का जो चित्र उसमें बनाये
चले जा रहे हैं खिड़की पे खिड़की पे खिड़की पे खिड़की और
सभी साथ लगी खिड़कियों से एक साथ एक-एक हाथ
निकाले माएँ कह रही हैं टाटा बच्चों: जिन्हें शब्द नहीं ज्ञात
वे दिल में अर्थ की पुड़िया दबाए हुए हिलाती हैं हाथ
दिखती है सड़क, आती है बस या कि रिक्शा, जाते हैं बच्चे
तुम मेरे साथ बैठी हो सुजाता, मैं लिखते-मुस्काते
देखता हूँ तुम्हारी तरफ़, तुम्हें पता होगा कविता के
आज के अनुभव में क्या घटा होगा, बादल छँटा होगा तुम्हारे मन
संसार के ऊपर से थोड़ा भी तो सूरज भी अपने आगे
पड़े हुए संसार के ऊपर आग नहीं, आँच भर आता है
मैं खुले प्रांगण में, खुले आँगन में, धुले फागन में देखता हूँ कैसे
-कैसे दृश्य! हाय के मेरे मन में कितना प्रेम
और तुम पास भी हो यही है इतना प्रेम जितना भी होता हो
कुल मिला कर देखा जाए तो हो तुम, और? और तुम
यह सब मेरे आगे यह सब और प्रेम का हसब और मुझे तो
शग़फ़ रखना आया दुःख से भी, तुम्हारे साथ
तुम्हारे दुनिया को देखने के बारीक पर्दे पर मेरा सिनेमा-दर्शन हुआ
ऐसा लगता है प्रेम में कि शेष नहीं है
‘स्पेस’ या ‘अंतरिक्ष’ शब्दों के अंतर्गत आ सकने वाली अनुभूतियों
अनुगूँजें सब यही सुनी जा सकती हैं, देखी जा सकती हैं
निभा पाया अगर किसी से मेट्रो-मैत्री में हुआ वादा
कि कल भी इसी स्टेशन पर इसी समय मिलूँगा दफ़्तर जाते वक़्त
तो दफ़्तर से घर और घर से अंतरिक्ष अथवा स्पेस कहलाने
वाले सभी अनुभव थोड़ा बहुत निभ जाएँगे हर किसी के हिस्से में
हर किसी के हिस्से से थोड़ा बहुत युद्ध शांति-प्रस्ताव
की ओर बढ़ेगा और हर किसी के हिस्से का कुछ बक़ाया चुकेगा
मेरे कविता में चुकाने से प्रेम-कविता में बित्ते भर की
ईमानदारी का बित्ता भर उच्चारण
प्रेम में कोई पीछे नहीं छूटा रहेगा, यही रट नहीं लगाई
ये नारा नहीं लगाया, ये ऐसा नहीं था कि कोई अध्यादेश हो
न्यायालय में पेश हो के कविता का क्या काम
बाहर बेंच पर साक्षात प्रजातंत्र बैठे-बैठे घिसा हुआ
साबुन होता रहा, धोता रहा मानवाधिकार का हाथ-रूमाल
और वह भी बराबर गंदे माथे पर से पसीने धूल थकान को
पोंछता रहा, सरकारी क्यू यानी न ख़त्म होती क़तार में शून्य जैसा
यानी सबसे पहले, सबसे आगे, आर्यों के पहले रही
संस्कृति का पहला बूढ़ा नागरिक जिसे वेदों उपनिषदों पुराणों
स्मृतियों संहिताओं की आवश्यकता नहीं रही
आज न ही सरकार के दस्तावेज़ में जगह पाता है और न ही
प्रेम-कविता में। आगे खड़ा है। सबसे पहले। आर्यों के पहले से।
वोल्गा जब नहीं जन्मी थी। प्रेम था, बीहड़ में
काले महाद्वीप पर भी। अश्वेत प्रेम। राक्षस प्रेम। असुर प्रेम।
हर तरह का प्रेम बेंच पर बैठा है। सबसे आगे।
बुद्ध के नाम पर लिखी जा रही नए पुष्पों की कविताओं का बुद्ध!
बेचारे अनभिज्ञ बैठे घिस रहे हैं अपनी मॉडर्न क़लम का
स्टील टिप, या पेंसिल का ग्रेफ़ाइट, या लहू से लिखने वाले
‘सीरियस आर्टिस्ट’ हर एक है सीरियस आज की दुनिया में और
बुद्ध की चर्चा है। अच्छा है
प्रेम-कविता के आगे जो भी गुज़रा,
मैंने प्रेम का ही समझते हुए
स्वीकारा, और शब्द के सिल पर दे मारा
अनुभव का बट्टा―मुझे यह प्रेम-चटनी दाल-भात के आगे
मेरे-तुम्हारे आगे खेलते बच्चों की तरह लगती है
दुनिया के आगे बच्चों के खेलने का प्रोग्राम चलवा देना चाहिए
हर एक में दशमलव भर भी माँ का होना आवश्यक है आज
मेरे बचपन में, माँ मेरी तरफ़ देखते हुए, आगे-आगे भागती और
इशारा करती कि आगे भागो बस कुछ ही दूरी पर स्कूल आएगा
मुझे विश्वास है कि आज भी अगर माँ बुलाए
तो कहीं कोई तो देश होगा जो युद्ध भूल जाएगा, प्रेम-कविता में
इस तरह का भी दृश्य होना अनिवार्य है
मुझे तुम्हारी अनुपस्थिति में नहीं दिखते हैं इस तरह के कोण बनते
तुम्हारी अनुपस्थिति में हर कोण केवल गणित होता है
तुम्हारे पास खुलता है मुझ पर यह भेद कि हर कोण बनाता है
अवसर, आगे यह तय करने का कि हमारा जीवन
क्या आकार लेगा
प्रेम-कविता में तानाशाह भी डकार लेगा
यह भी लिखना होगा कि तानाशाही अपने चरम पर थी
हमारी प्रेम-कविताओं के अंश मक़बरों के दरार पड़े पत्थरों के
बीच जगह बना लेने वाले प्रेमी युगल के प्रेम में ही नहीं
मक़बरों के बगीचे में गोला बनाए बैठे जोशीले विद्यार्थियों में
मक़बरों के अंदरूनी ठंडे फ़र्श से सर लगाए लेटे मज़दूरों की फटी
हुई शर्ट के फटे हुए जेब के कुछ नहीं में
मक़बरों को साफ़ करती औरतों के जेठानी-जेठ गीत में
पाये जाएँ इन प्रेम-कविताओं के अंश
गुज़र जाए किसी व्याकुल मन के आगे से जब ये प्रेम-कविता
तो वह अछूता न हो प्रेम से फिर कभी
प्रेम में पड़े, पढ़ते ही यह कविता
जो भी अगली चीज़ दिखे, दिखे जो भी आगे जाकर अगले
मोड़ पर, या इसी छोर पर, या दिखे डोर पर बैठी चिड़िया
जो अभी उड़ेगी, जो कभी उड़ेगी
जो अभी प्रेम है, बस वही प्रेम है
यह दृश्य भी हो प्रेम-कविता में।
हमारे आगे अभी दुनिया उस पागल आदमी सी है जो शहर के
सबसे व्यस्त चौक पर नंगा खड़ा अपनी पिंडलियाँ खुजाता हो
उसे क्या चाहिए? न ही उसे ज्ञात है, न देखने वालों को
पुलिस लाठी मार भगाती है और रात उसे निगल जाती है
जैसे दुनिया को निगल जाने वाली है थोड़ी-सी कटुता
थोड़ी-सी रात की तरह जो देखते-देखते खाए जाती है सहिष्णुता
धुआँ-धुआँ हो वह पागल आदमी शहर भर पे सवार होता है
धुंध चढ़ती है, कूचे खुजाते हैं अपनी दुम
कुत्ते रोते हुए हवा के पीछे भागते हैं! ‘पीछे’ देखा! ‘पीछे’
कुत्ते प्रेम में नहीं हैं। कटुता सवार है
प्रेम में कोई पीछे नहीं छूटता।
कितने कम लोग प्रेम कर पा रहे हैं आज
यह प्रश्न नादानी का है
या प्रश्न पूछने की फ़ेहरिस्त में जगह भरी जा रही है
मेरे सामने यह भी एक पंक्ति है
जिसे मैं लिखे लेता हूँ ज्यूँ का त्यूँ
तुम्हारे प्रेम में रहते हुए
मैं अपने साथ अपनी माँ की तरह बैठा हूँ
माँ वह नहीं जो मेरे निकल आने की पीड़ा से निकल आई हो
माँ वह जो मेरे आने की प्रतीक्षा के साथ-साथ है
मैं पेट की जगह पर अपने चेहरे पर हाथ फेरता हूँ
देखने वाला मुसलमान हूँ के संशय में कुछ घूरता है
मैं शहर भर में जगह-जगह इस तरह के चटके हुए काँच वाला प्रेम
अनुभव करता हूँ
बहुत चुभता है
लिखता हूँ
मैं अपने साथ अपनी माँ की तरह बैठा हूँ लिख रहा हूँ
तुम्हारे प्रेम में आने वाली अनेक पंक्तियों की ट्रेन
धूप के प्लेटफ़ॉर्म पर है
कि जम्हाई के प्लेटफ़ॉर्म पर आना है यह अभी कुछ साफ़ नहीं
पीछे नहीं छूटना है यह साफ़ है यह तय है
यह भय है
कवियों ने घोषित किया हुआ है कि प्रेम में भय नहीं होता
किंतु कविगण किस प्रेम-कविता में निर्भीक हुए फिरते हैं
उसमें जो दरवाज़े के पीछे लिखी जाती है?
प्रेम में पीछे जैसा कोई स्थान नहीं होता मान्यवर मोहे! (उर्फ़
कुर्ता फ़ैब इंडिया!)
क्या नहीं है प्रेम में वे बहस चलाते हैं दिन रात और प्रश्न जैसा
प्रश्न नहीं। ना ही बात जैसी बात।
मुझे बीत रहे हर पत्ते में अथवा ढल रहे हर पहर पर
प्रेम का अनोखा साया पड़ता दिखा
प्रेम में घटित हो रहा है जैसे ब्रह्मांड, जैसे शीतकाल में
स्थगित यम ग्रह विरह में है
जैसे बृहस्पति के सारे चाँद उस पर टूट पड़ने का
कामुक षड्यंत्र रचते हों! बृहस्पति की नदियाँ तो देखो!
कैसी उतावली होती हैं। जैसे किसी स्त्री ने लिख दिया हो अपनी
इच्छाओं पर मात्र एक लेख और पुरुष आलोचकों के मुँह पर
हाथी ने हग दिया हो! मेरे आगे यह है प्रेम-कविता।
सुजाता, तुम किताब पढ़ो। अभी दुनिया का पाचनतंत्र
बिगड़ा हुआ है
और प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना भगवान बचाने निकला हुआ है!
आज की प्रेम-कविता, प्रेम का कासा बहुत विशाल पाती है
तो कामचलाऊ, चाटुकारिता से काम लेती है
और सारा कार्यभार उपमाओं पर डाल देती है
मेरी समझ से परे है क्योंकि मैं तुम्हें अपने इतना पास बिठाए
लिखता हूँ ये कविताएँ कि और कुछ भी अपनी
चिंताओं से दूर नहीं पाता। हर एक की फ़िक्र लगी रहती है, एक
तुम्हारे पास रहने से, हर एक में प्रेम दिखता है। फूल
खिलता है। या तो खिलेगा। पर, सुनो सुजाता, अभी नहीं मिलेगा
वह वाक्य जो कहा जाना चाहिये था मनुष्यों के मिलने-जुलने में
सबसे अधिक, सबसे पहले, सबसे आगे होना चाहिए था जिसे
बात-चीत में। प्रेम-प्रीत में। लोक-गीत में।
वह एक वाक्य कहीं नहीं मिला मुझे पर ज्ञात था प्रेम में होगा
प्रेम में था, है
मगर तय यही किया है कि सुबह होने जैसा खुला-खुला
नहीं लिख दूँगा कविता में। धूप की तरह तुम्हारे कानों में कहूँगा
बहुत धीमी आवाज़ करती पत्तियों से होता हुआ
और ऐसा मान के नहीं, जान के आगे बढ़ता हूँ
कि हर बार की तरह दुनिया सब सुन लेगी…
- रचनाकार : अभिजीत
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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