सागर मुझसे सायं समय वाद करता है
मुझ पर अपनी छाप लगाने की चेष्टा करता है
पल भर अपनी उत्तुंग तरंगों से भीत करता है
कुछ पल अपने हास के फेन से पुचकारता है
मैं—अचल कठोर विशालकाय भूधर-सा
किसी से भी टकराने में समर्थ हृदय-सा
उसकी पुकार को
हाहाकार को
अनसुना कर
अपनी स्तब्धता से
उसके भीकर रव को हराकर
अपनी चेष्टाओं से उसके दृष्टिपथ को
अपनी ओर आकृष्ट करता हूँ
आकाश से हाथ जोड़े बैठता हूँ
रात-दिन गर्जन करते रत्नाकर को
मेरी मंद-स्तब्धता से
बहु भीत है
धरा को निगलने के हित फुफकारती लहर
नाग बन मेरी ओर अपनी जिह्वाओं को बढ़ाती लहर
अगले पल ही लौट जाती है फिर
न हिलने-डुलने वाली यह भूमि
मंदिर का स्वविराट है
जीवन-यापन के लिए धरनी-सा
मैं नाना कष्टों को झेलता हूँ
पर मेरा हृदय, सागर बन कर
मुझ में उमड़ पड़ता है
अपने में स्थित रत्नाकर को छिपाने
मैं विविध यातनाएँ सहता हूँ
ऊपर से मैं धरा-सा दिखाई पड़ता हूँ
भीतर से जलनिधि-सा दौड़ लगाता हूँ
मैं अनिच्छा के कार्य करता हूँ
मैं अपनी ज़रूरतों के लिए तरसता हूँ
मैं पिस्तौल हाथ में लेना चाहता हूँ
पर लेखनी से सपने देखता हूँ
मैं अपने विश्वस्त सिद्धांतों को विफल देख
अपनी बोई चमेली को काटते देख
स्वनिर्मित आशा-प्रासाद ढहते देख
जिस भावी देवता की कल्पना
वर्तमान राक्षस के रूप में अवतीर्ण होती देख
मैं आहें भरते स्वयं को दोष दे रहा हूँ
काल के गिराए सूखे पत्तों को
वसंत की याद में
जेब में रख भटक रहा हूँ
फिर भी मेरी धमनियों की ज्वाला बुझी नहीं
वंचना के हिमगर्त में समाते मुझमें
त्रेताग्नि प्रज्वलित हो रही है
चेतना का वरण कर रही है
इसीलिए मैं सीधा खड़ा हूँ
पर मैं कौन हूँ?
अवनि को अश्रुकण से सुशोभित
करने वाला, वही, वही—मैं
कोऽहम्? सोऽहम्...।
- पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 128)
- संपादक : माधवराव
- रचनाकार : दाशरथि
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
- संस्करण : 1985
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