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खोया-खोया-सा ख़्यालों में दूर नगर से जब जाता

khoya khoya sa khyalon mein door nagar se jab jata

अनुवाद : मदनलाल मधु

अलेक्सांद्र पूश्किन

अन्य

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अलेक्सांद्र पूश्किन

खोया-खोया-सा ख़्यालों में दूर नगर से जब जाता

अलेक्सांद्र पूश्किन

और अधिकअलेक्सांद्र पूश्किन

    खोया-खोया-सा ख़्यालों में दूर नगर से जब जाता

    क़ब्रिस्तान आम लोगों का, नज़र सामने तब आता,

    जंगले, स्मरण-शिलाएँ, दिखतीं वहाँ कई सुंदर क़ब्रें

    जहाँ राजधानी के मुर्दे, धीरे-धीरे गलें, सड़ें,

    और पास ही दलदल में हैं, जैसे-तैसे सटे हुए

    मानो थोड़े से भोजन पर ढेरों पेटू डटे हुए,

    व्यापारी, नौकर सरकारी, वहाँ मक़बरे हैं उनके

    घटिया-सी नक़्क़ाशी, सज्जा ऐसे लक्षण हैं जिनके,

    उनके ऊपर गद्य-पद्य में लिखा हुआ विस्तृत वर्णन

    उनके काम-काज, पद-रुतबे, उनकी नेकी का अंकन,

    कामदेव की मूर्त्ति बहाती नीर नारियों के छल पर

    वहाँ कलश ग़ायब स्तंभों से, हुए चोर चंपत लेकर,

    और पास में नूतन क़ब्रे, राह देखतीं मुँह बाये

    अगले दिन कोई अवश्य ही, उनमें रहने को आए,

    देख सभी यह, धुँधले-धुँधले भाव हृदय में कुछ आते

    घोर उदासी, शोक-रोष यों हावी मुझ पर हो जाते—

    जी में आता थूक यहाँ पर, दूर कहीं मैं जाऊँ भाग...

    किंतु दूसरी ओर मुझे है तब कितना अच्छा लगता

    पतझर की संध्या में छाई होती है जब नीरवता,

    तभी घूमने मैं जाता हूँ, जहाँ गाँव का क़ब्रिस्तान

    मृतक चैन से वहाँ सो रहे, पाकर चिर निद्रा वरदान,

    बिना सजावट की क़ब्रें हैं और वहाँ पर है विस्तार

    रात्रि-तिमिर में सहमे-सहमे, वहाँ आते चोर-चकार,

    काई ढके पुराने पत्थर, पाषाणों के निकट, पास से

    गुज़रे जब देहाती कोई करे प्रार्थना औ' उसाँस ले,

    वहाँ सजावट, नहीं कलश भी लेख-शिला के आडंबर

    बिना नाक की कला-देवियाँ, परी–मूर्ति टूटी, जर्जर,

    उनकी जगह बलूत बड़ा-सा, छाया क़ब्रों के ऊपर

    मंद पवन में हिलता-डुलता, करता रहता है सरसर...

    स्रोत :
    • पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 42)
    • रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
    • प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
    • संस्करण : 1982

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