एक
राहें कहाँ जाती हैं
इन धूप भरी सुबहों की।
शामों के पर्दे थरथराते हैं
गुफाओं में
तन-गंध-ध्वज तनते हैं
न जाने कहाँ विलयन हो जाता है?
अनमन तिथियों का
संबोधन कहाँ-कहाँ छूता है।
छोटे अंतराल में
अपने आप बँधते हैं शब्द, ऋचाएँ बन,
अपने आप वृत्तों में समाहित हो जाते हैं।
क्यों नहीं
फट जाते पन्ने इतिहासों के
क्यों नहीं राहें विपरीत हो जाती हैं
फिर से जिएँगे व्यतीत,
राहें कहाँ जाती हैं, हमारे काल बोध की
उलट कर क्यों नहीं खोलती हैं हमें।
उत्तर में।
दो
इधर कई दिनों बाद
धूप लगे चेहरों से
टपकने लगा है—वसंत फूल फूल-सा।
अनछाए वृक्षों से नहीं मिली छाया
चुपचाप धूप खपा दिवस
संज्ञा के गले लगा उमस भरी हवा
दौड़ पड़ा जनपथ से शोर उठा कंधों पर
सड़कों के चित्र, तिकोनी गलियाँ
पहुँच रही दूर दृष्टि पथ से
टकराते पर्वत औ’ साफ़-साफ़ दिन का मुख
हो उठता पथ-फूले पीले कनेरों से मैला सहसा
इतना मौसम—सच जैसे सीने पर अटक गई
पत्थर की शिला
सब इतनी मीठी दुपहरियाँ—घर-आँगन-सूने खेतों तक
हरियाली—फूली डाली-डाली
कोई धो गया आँगन-सा नभ
फैलाए मुले कंधों पर
लटकाए दिन का तमाम चित्र—उकसा...।
तीन
रक्त रँगे हाथों
दे नहीं पाया अनुभूत—उसे हत्या कहते
हो तुम
आह! सभी मेरे कृत्य
तुम्हें अर्पित थे—अस्वीकारते रहे तुम
सीमांत पथ तोड़-फोड़
जिस क्षण आया
उसी क्षण चुप हो गए संगीत स्वर—
नहीं सुने गए। तो मुझे कहते रहे अनाहूत
आमंत्रित नहीं थे तुम।
नामांकित रेखा के बिंदु
सभी सागर के उथले तट फँस गए
उसे भी दूर धकेलते रहे तुम—डर से।
कहीं ख़ुद न उलझ जाओ गुंजलक में।
ऊपरी सतह से उठे चेतना के स्वर
नहीं पहचाने गए—मुझे कोसते रहे
बीच में आ गया व्यवधान
सच! आदमी का शव भयावह नहीं
स्वयं आदमी जिसे दुत्कारते रहे
तुम।
संज्ञावान ऋषि जो दे गए
ऋचाएँ-गीत-गान—उन्हें भी अस्वीकारते
रहे तुम
रक्त हत्याएँ न जाने कितनी बार झेलकर
कहते रहे हो—यह नहीं है मेरे नाम...
चार
अभी मेरे पास
लगभग
एक पूरा अखंडित आकाश
भर गया है अनेकों स्वर-धुनें
—लौटी हुई उन एकांत काल-ध्वनियों से।
सचमुच अभी मेरे पास
टूटा है न जाने कहाँ से
बिखर कर
आकाश
झर-झर कर
अर्थ-शब्दों अजानी मुद्रित क्रियाओं में।
वर्षों-युगों-कल्पों से
विकल्पातीत वह व्यक्तित्व
अटूटा—
आह!
एक इतनी बात से अनजान हो बैठा
भटकती पीढ़ियों की मात्र छोटी पीड़न…
...उपेक्षा से
आह!
इतने भरे पूरे रंग नभ से
टूट बैठी है क्षणों की एक सीमा
जिसे केवल अपरिचित है
टूटना-झरना किसी दिन फिर
अजानी दिशाओं में आस्वरामुद्रित या हो जाना
संयोजित... हो जाना।
- पुस्तक : विजप (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : गंगाप्रसाद विमल
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 1967
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