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शरीर और सपने

sharir aur sapne

भवानीप्रसाद मिश्र

भवानीप्रसाद मिश्र

शरीर और सपने

भवानीप्रसाद मिश्र

और अधिकभवानीप्रसाद मिश्र

    नसें तो नसें

    हड्डियों तक में धड़कता लगता है

    मुझे अपना दिल

    तटस्थ क्षणों में विचार करने भर की सामग्री

    नहीं मान पाता में

    अपनी ही बीमारी के लक्षणों को

    हर क्षण लगता है

    समाप्त हुआ तो नहीं है सब कुछ

    मगर

    समाप्त होता

    ज़रूर चला जा रहा है

    मैंने ज़िंदगी को शायद

    इतना अधिक सपनीला

    बना लिया था

    कि पिघल कर रह गई है

    अब उसकी सत्ता

    अब मैं अपने सपनों को

    थोड़ा भी वापस खींचकर

    अपनी इस क्षण की

    ठोस और सालिम और ऊबड़खाबड़

    ज़िंदगी के

    सचमुच के होंठ चूमने की अपनी साध

    पूरी नहीं कर सकता!

    मैंने सपनों से भरी

    किसी एक ज़िंदगी को इतना सोचा है

    कि हाथ फैलाकर आलिंगन के लिए

    जब-जब कसा है किसी को

    तो प्रायः ज़िंदगी की

    छाया को कसा है!

    और इसी तरह

    धीरे-धीरे वास्तव का सरूप

    मेरे लिए छाया बनता चला गया है!

    अभी सूरज निकल रहा है

    नए दिन का साफ़-सुथरा सूरज

    और आवाज़ें सचमुच की

    पुकार रही हैं मुझे

    मगर अब वापस लौटना भी चाहूँ मैं

    तो लौट नहीं सकता

    बहुत दूर निकल आया हूँ

    सचमुच के देश से

    और ताक़त का हाल यह है

    कि नसें तो नसें

    हड्डियों तक में धड़कता लगता है

    मुझे अपना दिल!

    शरीर मेरे

    क्या तुम्हीं सब-कुछ हो तब

    कुछ नहीं कल्पना

    और बुद्धि और आत्मा

    तब कौन है यह

    जो मेरी ओर से पूछ रहा है

    और जवाब मिलने का

    आभास जो होता है

    सो कहाँ से होता है

    कौन है जो बनाता है बातें

    कौन है जो छुपाता है जैसे उन्हें

    मुझसे

    तुम्हीं हो क्या ऐसे सर्वशक्तिमान्

    और मीठे और वंचक

    और शब्द ये

    जो घुमड़ कर भीतर से उठते हैं

    काटते हुए तुम्हारे ही किनारे

    सो भी तुम्हीं से उठते हैं

    और तुम्हीं में उठते हैं

    और सर्वशक्तिमान् हे

    अपराध मान है क्या तुमने

    सपनों के देखने में

    तो सपने उठाता कौन है भीतर

    किस पर डालूँ

    अपने सपने देखने की ज़िम्मेदारी

    और इस अपराध को धोने के लिए

    किस देवता के आगे होगा

    बलिदान इस सपने देखने वाले का

    कौन पकड़ कर चोटी

    काटेगा उस का शीशा

    और ख़ून जो बहेगा

    कौन होगा तुष्ट उसे पीकर

    तुम

    मगर तुम्हारी प्यास तो

    कभी नहीं बुझी

    किसी चीज़ से नहीं बुझी

    क्योंकि बेख़बर

    इतना नहीं रहा

    तुम्हारी तरफ़ से भी मैं

    कितना नाच हूँ तुम्हारे इशारों पर

    नौ मन तेल तक जुटाया हैं मैंने

    ख़ुद अपने ही लिए

    कि परिपूर्ण तृष्टि दे सकें तुम्हें

    मेरे नाच की सुखस्फूर्त भंगिमाएँ;

    मगर एक के बाद एक

    दूसरे नाच के आदेश

    देते ही गए तुम

    और तब हारकर कहो

    खीझ कर कहो

    मैंने सपनों को ही

    ज़्यादातर अपना माना

    सपनों को पलायन मानते हो तुं

    मैं वस्तुस्थितियों को बदलने का

    एक उपाय मानता हूँ उन्हें

    पलायन में

    स्थिति को बदलने की इच्छा

    कहाँ होती है

    मेरे सपने तो

    सच को शीशे में

    उतारने की प्रक्रिया से कम नहीं थे

    और इसलिए

    वे कायरता हैं

    अपराध

    जैसे सरल रेखाएँ

    बाँध सकती हैं

    कुटिल से कुटिल क्षेत्रों को अपने में

    ऐसा समा लिया था मैंने

    सत्यों को और तथ्यों को

    अपने तरल सरल सपने में

    पुराने और गए-बीते

    निरुद्देश्य दिनों को

    पसंद नहीं आया

    मेरा दूर देखना

    और मेरे शरीर

    तुम ने उनका साथ दिया

    और नसें तो नसें हड्डियों तक में

    धड़कता लग रहा है

    मुझे अपना दिल

    अपराध है अगर सोचना

    और सपने देखना

    तो तुम क्यों मिले थे मुझे

    मिलता किसी मछली

    मगर

    या छिपकली का शरीर

    जो तैरता रहता पानी में

    बिना सोचे

    पड़ा रहता रेत में

    निगल लेता औरों को

    सोचे बिना झनकारता रहता

    अँधेरे में

    गुँजाता रहता जंगल

    था चिपका एकाग्र

    किसी मैली-कुचौली दीवाल पर

    तुम क्यों मिले थे मुझे

    सांग और संपूर्ण

    और लचीले

    जिसके भीतर बुद्धि है

    मन है, आत्मा है

    इच्छा है

    दूसरों से निभकर चलने की ही नहीं

    सब-कुछ निछावर कर देने की

    दूसरों पर

    आस-पास को

    ऐर उससे आगे दूर-दूर तक

    सबको

    हँसते देखने की

    क्यों मिली थी

    प्रबल प्यास

    पुराने गए-बीते दिन चाहते हैं

    कि जियूँ तो मैं अब भी

    मगर देते रह सकने के लिए नहीं

    लेते रह सकने के लिए

    ऋतुओं के साथ

    हँसने-हँसाने के लिए

    आँधी और तूफ़ान

    और पतझड़ में

    निकल पड़ने के लिए नहीं

    बैठे-बैठे सिर छुपाने

    उदास होने

    और रोने के लिए

    भीतर की शक्ति

    और स्नेह में

    ना या हाँ कहने के लिए नहीं

    क्रोध में

    निषेध करने के लिए

    दंभ मे स्वीकृति देने के लिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मन एक मैली क़मीज़ है (पृष्ठ 144)
    • संपादक : नंदकिशोर आचार्य
    • रचनाकार : भवानी प्रसाद मिश्र
    • प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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