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शिशिरांत

shishirant

हरिनारायण व्यास

और अधिकहरिनारायण व्यास

    हो चुका हेमंत

    अब शिशिरांत भी नज़दीक है।

    पात पीले गिर चुके तरु के तले

    आज ये संक्रांति के दिन भी चले।

    नाश का घनघोर नक्कारा

    सुबह के आगमन को गूँज देकर

    डूबता जाता विगत के गर्भ में।

    भागता पतझार अपनी ध्वंस की गठरी समेटे।

    पुष्प ग्रीवा में नवोदित सूर्य की सुंदर किरण ने

    डाल दी है बाँह अपनी

    दूर के भटके हुए दो प्राण-तन

    आज फिर से मिल रहे हैं हँस-हँस गले।

    दिग्-दिगंतों में वसंती का आवरण प्रसारित हुआ

    छू लिया चैतन्य ने प्रत्येक कण।

    जागता जन में अडिग विश्वास

    सुख आभास भरता रंग की रेखा

    किरण जैसे नए धन में अनोखे रंग भरती।

    ज्यों आषाढ़ी मेघ की बौछार

    सूखी, चिर-तृषा-विह्वल धरा को

    सजल कर सौरभ पिलाती

    आज ऐसे ही किया स्वीकार

    जग ने प्यार जन का।

    अर्थ जीवन को मिला फिर

    काम के क्षण मिल गए।

    जगत के दीन जन

    अपने अडिग विश्वास का सूरज प्रकाशित हो गया :

    अब शिथिलता को विदा दो

    जा चुके क्षण अब विवश आराम के।

    साफ़ कर लो

    द्वार, घर, गलियाँ नगर की ग्राम की।

    खेत का, खलिहान का कचरा समेटो

    अब नई सुंदर फ़सल के बीज के अंकुर निकलना चाहते हैं

    तोड़ दो यह बाँध

    जिसको बाँध कर

    रोक दी है धार की गति।

    और जिसके तट अँधेरे में मनुज का

    रात भर शैतान अपने जाल में करता रहा संहार।

    वह महामानव हमारा इस बँधे जल के कहीं

    तल में प्रगति की राह पाने खो गया है।

    दे चुके हम मूल्य भारी, इस भयानक भूल का।

    इसलिए रोको तुम अब यह प्रवाहित वेग—

    मत करो गंदी अरे जन-जाह्नवी पोखर बना कर

    तुम उसे फिर से सृजन की राह पर लाओ

    भगीरथ!

    लक्ष्य तक फैली डगर के कंटकों के डंक तोड़ो

    कंदरा के गर्भ में व्याकुल बिलखता है तुम्हारा विश्व

    तुम इसे विश्वास दो

    इंसानियत की ज्योति दो।

    अब उठो, कंधे मिला कर

    फिर नया जीवन बसाओ

    दिग्-दिगंतों में वसंती वायु का परिधान फैला।

    गल चुके सब शीत के उत्तुंग भूधर।

    फिर नई यात्रा करो आरंभ, अब शिशिरांत भी

    नज़दीक है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दूसरा सप्तक (पृष्ठ 78)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : हरिनारायण व्यास
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2012

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