संध्या-सुंदरी
sandhya sundri
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुंदरी परी-सी
धीरे धीरे धीरे
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,—
किंतु गंभीर,—नहीं है उनमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले बालों से,
हृदय-राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह-सी अंबर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथों में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग आलाप,
नुपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा “चुप चुप चुप''
है गूँज रहा सब कहीं,—
व्योममंडल में—जगती-तल में—
सोती शांत सरोवर पर उस अमर कमलिनी-दल में—
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्ष-स्थल में—
धीर वीर गंभीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में—
उत्ताल-तरंगाघात-प्रलय-घन-गर्जन-जलधि-प्रबल में—
क्षिति में—जल में—नभ में—अनिल-अनल में—
सिर्फ़ एक अवयक्त शब्द-सा “चुप चुप चुप”
है गूँज रहा सब कहीं, —
और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह
प्याला वह एक पिलाती,
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह कितने मीठे सपने।
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती वह लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से
आप निकल पड़ता तब एक विहाग।
- पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 43)
- संपादक : रमेशचंद्र शाह
- रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2010
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