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समय की कुल्हाड़ी

samay ki kulhaDi

वियोगिनी ठाकुर

वियोगिनी ठाकुर

समय की कुल्हाड़ी

वियोगिनी ठाकुर

और अधिकवियोगिनी ठाकुर

    समय की कुल्हाड़ी सीने में धँस गई है

    जीवन हर दिन अमावस की गहन रात्रि-सा बीतता है

    एक ऐसी दुनिया में चली आई हूँ मैं

    जहाँ सुबहें नहीं होतीं

    दिन और रात का फ़र्क़ समाप्त हो गया है

    जहाँ चाँद नहीं निकलता

    चाँदनी नहीं छिटकती

    पेड़ से फल नहीं गिरते

    फूल नहीं खिला करते

    जहाँ हवाएँ किसी और लोक की वासी लगती हैं

    इसी एक दुनिया में और कितनी ही दुनियाएँ हैं

    मेरा पाँव कौन-सी दुनिया में पड़ा है—नहीं जानती

    कितनी ही आवाज़ें हैं

    जिन्हें अब सुन नहीं सकती हूँ

    कितनी ही आवाज़ें हैं

    जिन तक मैं नहीं पहुँच सकती

    कोयल की आवाज़ तुम बतला सकते हो

    वह मेरी देह के कौन-से हिस्से में खो गई है

    या यह कि कैसी होती है कटहल की नवजात कली

    बिल्वफल की गंध क्या फिर उतर सकेगी हाथों में

    मेघों के लौटने पर मैं फिर तुम्हारा नाम पुकारूँगी

    खोजूँगी वह दिशा जिस ओर तुम रहा करते हो

    आम्र का बौर और उस पल डोलती

    मधुमक्खियों का आलाप

    पाँवों से लिपटी हुई फूलों की सुगंध

    पेड़ो की टहनियों से झरकर आती धूप

    झरबेरी के बेर और नथुनों में भरती उनकी महक

    दाँतो तले दबाए हुए करौदें के फूल का स्वाद

    इसी जीवन में चखा था वह सुख... हाँ इसी जीवन में

    सुख जो धँस गया है मन के जाने कौन से हिस्से में

    तुम्हारी रूखी कंटकों से भरी रक्त से सनी हथेलियों जैसे

    तुम्हारे हाथों को अपने हाथों में भरने की इच्छा

    इच्छा तुम्हारे ज़ख़्म फूँकने और सहलाने की

    कितनी दूर तलक चली आई है नहीं जानती

    जबकि कितने पीछे छोड़ आई वह मन

    आक के बैंजनी फूलों तले

    मन जो कभी लौटा तो लौट आएगा वह सब भी

    जैसे वसंत लौट आता है हर पतझड़ के बाद

    मेघ बार-बार लौट आते हैं असमय जाड़ों में

    लौट आएगा फिर से वह सपना भी

    जिसमें मैं तुम्हारे नाम से लगाए

    वृक्षों को सींच धरती का रूप सँवारूँगी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वियोगिनी ठाकुर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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