धुले-पूँछे सजीले कपड़े पहने सब बैठे हैं सभागार में
कुर्सियाँ कम ही ख़ाली हैं
यहाँ किसी का जीवन है जो फ़िलहाल पकड़ में नहीं आता
दूर से चमकता है एक बूँद की तरह
कुछ लोग बीच से ही उठकर चले आए हैं
कहना कठिन है कि वे यहाँ किसी चीज़ से छूटने आए हैं
या किसी चीज़ को पाने
यह एक फ़ुटपाथ की तरह है जहाँ कोई छत नहीं
या जहाँ बेघरों की नींद है
शायद बचपन की कोई हवा बैठी है ख़ाली कुर्सियों पर
किसी निर्जन कोने में छिपकर सुन रहा है अकेलापन
यातना के खुरदरे फ़र्श पर आराम कर रहे हैं पैर
धुँधली कुछ शक्लें बेतरतीब यहाँ-वहाँ उड़ती हैं
क्या यह विचार व्यक्त करने और सोचने की जगह है
या मुक्ति की कोई जगह
कोई आईना है हमारे पास
जिसमें समय का सही चेहरा दिखाई दे
वहाँ हत्यारे फूलों के मुखौटे लगाते हैं
और आत्मा का सिक्का ख़ूब चलता है धर्म के बाज़ार में
कोई अपने बारे में सीख नहीं पाता कुछ
किसी विज्ञान या तकनीक की तरह
ख़ुद से मुकरते हुए
समर्थन और निंदा से भरे हुए
अतीत की राख की तरह बिखरते हुए
एक पालतू आदमी में लगातार बदलते हुए
अंततः सबको उठकर बाहर जाना होता है इस सभागार से
- पुस्तक : रोशनी के रास्ते पर (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : अनीता वर्मा
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2008
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