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रूपिन और सूपिन

rupin aur supin

प्रमोद कौंसवाल

प्रमोद कौंसवाल

रूपिन और सूपिन

प्रमोद कौंसवाल

और अधिकप्रमोद कौंसवाल

    खिली हुई चाँदनी में बिखरा किसका बचपन

    किसको याद चाँदनी पेड़ों से छनकर

    आई या दीवार से मैं ही नहीं जानता

    अपने बचपन के बारे में

    ज़्यादा तो किसी से क्यों कहूँ

    नहीं जानता मुझे कोई

    जैसे नैटवाड़ की नदियों

    रूपिन और सूपिन को

    इनसे बनकर बनी है टौंस

    और इनसे से बनी भागीरथी

    जिनसे बनी आख़िर गंगा।

    बहरहाल। बड़े होकर मैं

    दोस्तों और रिश्तो में

    घुल-मिल नहीं सका

    मैंने कहा नदी भी जब मिलती है

    नदी से तो काफ़ी आगे तक

    वे अपने-अपने रंगों में चलती हैं

    छोड़ती है अपना रंग टकराकर

    चट्टानों और पहाड़ों के किनारों से

    मैंने रिश्तों और दोस्तों में ठोकरें खाईं

    और अपना रंग छोड़ दिया।

    रूपिन से होकर एक पुल गुज़रता है

    सूपिन में बहता है ठंडे बांज-बुराँस का पानी

    दोनों कभी नहीं सूखी

    और गर्मी में तो

    उनमें बहा ज़्यादा पानी ज़्यादा ठंडा

    वे जैसी-जैसी बड़ी होती गई

    और टौंस बन गई

    उनमें कई तरह से व्यापार बढ़ा।

    जैसे पेड़ बहाने की वे राह बनी।

    रेलवे लाइनें बिछीं इस तरह। आप ऐश करते होंगे कहीं।

    गूजर का बेटा इसी

    संगम पर बैठा है

    बचपन के मेरे दिनों की तरह।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रूपिन-सूपिन (पृष्ठ 73)
    • रचनाकार : प्रमोद कौंसवाल
    • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
    • संस्करण : 2002

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