इलाहाबाद की ख़ुसरो बाग़ रोड, जी. टी. रोड, लूकर रोड, चैथम लाइंस, बरेली की स्टेशन रोड, मनोहर नायक और दिवंगत बलदेव साहनी के लिए
एक
सड़क पर पैर रखना
कितनी गहरी दूरियों से जुड़ जाना है एकाएक
कितने सारे लोग, कितने देश कितनी
ध्वनियाँ, गति, कितनी हवा
वाह, कितना अपनापा!
रबड़ के बूट पहन कर जिन्होंने फैलाया था
सींकदार बुरुश से पिघलते हुए
तारकोल की गिट्टियों पर
देखो, कहीं न कहीं बने होंगे उनके
पैरों के निशान
या फावड़ों का साँचा
रोलरों के बावजूद
देखो, हर सड़क इसी तरह
मिल जाती है हर सड़क से
इसी तरह एक होती ही जाती है दुनिया
दो
बेहद अकेली होती है कुछ सड़कें
जिनसे गुज़रती हैं ज़्यादातर सिर्फ़
ख़ाकी हरी गाड़ियाँ
भरी हुई धूप में
अकेला आदमी उन पर
एक अपशकुन की तरह चलता है
भले ही वह साइकिल पर हो और
पैडिल में हवा के ख़िलाफ़
ज़ोर मार रहा हो
कभी होती हुई शाम या हल्की बारिश में
इन पर चल कर
देखो
वे चमकती जाएँगी अपने साफ़ धुले
कालेपन के साथ
पर ख़त्म नहीं होंगी
ये ही हैं वे सड़कें
जो जा पहुँचती हैं सीधे समुद्रों तक
तीन
सड़कें बोलती नहीं
जैसे लैंप पोस्ट और बरगद भी नहीं बोलते
भले ही ऐसा लिखा हो
पिछले बरसों की
अवसादपूर्ण कहानियो में
मगर सड़क छापती है
जैसे ही उस पर पड़ता है एक
भरपूर पैर
एक साबुत आदमी के वज़न के साथ
सड़क छाप लेती है—‘छप्’
चार
कभी ग़ौर करना
सबसे पहले पैर का पंजा कुछ तना हुआ
लपकता है सड़क की तरफ़
छूने-छूने को ही होता है कि एड़ी
बाज़ी मार ले जाती है
एड़ी के टिकते ही
सड़क की त्वचा के ज़रा नीचे
एकदम से चीख़ते हैं कई महीन स्वर...
जैसे हारमोनियम की पसलियों से
उस बिंदु से पहले
दोनों दिशाओं में जाते हैं
फिर सिर्फ़ तुम्हारी दिशा में
तुम्हारी अनवरत पदचाप के खोखल में
लौट कर विलुप्त हो जाते हैं
यह सब घटित होता चलता है
सतह के सिर्फ़ ज़रा-सा नीचे
पाँच
यहीं कहीं होंगे
हमारे उन दोस्तों के पैरों के
स्पंदन भी
जो जब नहीं हैं
यहीं कहीं किसी न किसी चीज़ में मिलकर
वे कुछ हो गए होंगे
मसलन, पत्तों तक छा गए होंगे
पेड़ की सबसे मोटी जड़ के रस में घुल कर
या रेल की धड़धड़ाहट के साथ
यात्राओं के भोंपू की आवाज़ के साथ
या शायद आहिस्ता से खिसका हो
फ़क़त कोई ज़र्रा
सारे भूगोल को लेकिन कुछ न कुछ
बदलता हुआ
वैसे
ये भी वे ही हैं
यों मेरे शब्दों के रास्ते भाषा में जाते हुए
छह
कई रोज़ बारिश के बाद जैसे
निकली हो धूप
वह भपक और साँस से भरपूर
होती है
खुरखुरी सड़क
भैंस की जीभ जैसी
उसके मुँह में रोटी दो तो चोंच
बने हाथ को जैसा लगता है
वैसी
सात
सड़कें
समय से सिर्फ़ आगे को जाती हैं
आती वे सिर्फ़ पीछे से हैं
जहाँ तुम खड़े हो
वह महज़ एक जगह है सड़क पर
जहाँ एक औरत को नंगा करके पीट
रहे हैं सिपाही
इन्हीं सड़कों से चलकर
आते रहे हैं आततायी
इन्हीं पर चल कर आएँगे
एक दिन
हमारे भी जन
- पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 64)
- रचनाकार : वीरेन डंगवाल
- प्रकाशन : नवारुण
- संस्करण : 2018
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