एक
काली उजली धारियोंवाला जेब्रा
चिड़ियाख़ानों में और अफ़्रीका के जंगलों में
दम तोड़ रहा है
प्रजाति-संधि पर खड़ी उधड़ी जा रही है उसकी प्रजाति
जिलाए रख पा रहे हैं हम उसे अभी तक
सभ्यता के सीमांत पर ही नहीं, सभ्यता के बीचों-बीच
धन्यवाद इसके लिए तो मिलना ही चाहिए हमें
दोनों तरफ़ ठिठके हुए ट्रैफ़िक के बीचों-बीच
धन्यवाद इसके लिए तो मिलना ही चाहिए हमें
दोनों तरफ़ ठिठके हुए ट्रैफ़िक के बीचों-बीच
काली-उजली जेब्रा-धारियों पर पाँव धर
अपने शहर में सड़क पार करते हुए जब कभी याद आता है यह हमें
ठीक उसी पल याद नहीं आता
कि इस धारदार शहर में यह धारीदार जेब्रा ही है
जो हमें जिलाए हुए है
गुर्राती गाड़ियों के बीच दौड़कर सड़क पार करते हुए
जेब्रा भर की ज़मीन है बमुश्किल हमारी
बाक़ी सब जब्बर की
जो चलते नहीं, कुचलते हैं
सरेराह
दो
संग्राम!
कभी तो सारे ग्राम के इकट्ठा होने का नाम था
देह से छिलती देहवाले इस महानगर में
यह संग्राम ही तो है
अहर्निश एक जीवन-संग्राम
मरण को पीठ दिए
पीठ की ओर से ही आती है मृत्यु
अचानक
कि अचकचाने का भी वक़्त नहीं होता
इस संग्राम के पैदल सिपाही
निरस्त्र निष्कवच
हाथ ऊपर उठाए—
किसी हाथ में ख़ाली टिफ़िन का डिब्बा, किसी में मुड़ी हुई छतरी—
जेब्रा की काली-उजली धारियों पर पाँव धर
ट्रैफ़िक-सिग्नल के त्रिनेत्र खंभे की
खुली आँख में झाँकते कनखियों से
पाँवों-पाँवों
सडक में जड़ रखा गया जेब्रा
अधरात
यातायाताघातों से थर्राती सड़क के निष्कंप हो जाने पर
सड़क में से निकलता है
काली-उजली धारियाँ कुलाँचों में चमकती हैँ
अफ़्रीकी जंगलों की ओर नहीं
चिड़ियाख़ाने के बाड़ेबंद मैदानों की ओर नहीं
निंदासे-उदासे जेब्रा-यूथों की ओर नहीं
पदातिक तलवों की मिट रही गंध को सूँघता
ढूँढ़ता आता है वह जन-जन के द्वार
सपनों के प्यादे अश्वारोही बनते हैं
जिस्म के घाव भर देती है जिजीविषा
सूरज की पहली किरण
जब नगर में उतरती है
गुलाबी तलवोंवाली,
जेब्रा को पाती है वहीं
पदतल के लिए बिछा सड़क का करतल
- पुस्तक : संशयात्मा (पृष्ठ 131)
- रचनाकार : ज्ञानेंद्रपति
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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