लाल धधकते लोहे के टुकड़े
तुम्हारी आँखें,
आँखों के नीचे हड्डी की टेढ़ी-उभरी लकीर।
नज़्र-ए-शमशेर
एक
वहाँ बारिश होती है
पुरानी लकड़ी की पाट भीगती है
उसकी दरारों से दीमक चूने लगते हैं
माथे पर खिड़की के लोहे की ठंडक महसूस करता हूँ
भाप जैसे बूँद-बूँद कर टपक रही है दिमाग़ में
मैं आँखें बंद कर लंबी साँस खींचता हूँ
जैसे सकल विस्तार को अपनी श्वास-नलिका में घूमता महसूस करता हूँ
बिंदु-बिंदु प्रकाश छिटका है
प्रकाशवर्ष दूर एक-एक बिंदु
कोई मासूम नहीं होता
न तू थी, न मैं था
तू भूल भी गई शायद
या याद भी रहा तो क्या मुझे पता नहीं!
पर एक इच्छा है जागी हुई
कि एक दिन उस खिड़की के लोहे पर माथा रख
हम दोनों बारिश देखें!
मैं तुझे जिस उम्र में छोड़ आया था
असल में, वहीं से तुझे अपने साथ लाया था
जिस दिन बारिश हो रही थी
रसायनों की हल्की गंध के बीच
मैं खड़ा था अकेला अपने में
तुम मुस्कुराई
जैसे, आज कहूँ, वसंतसेना!
इसीलिए चाहता था बहुत तुम्हें
कि बक़ौल बेदिल सच सच को ढूँढ़ता है।
जिस दिन बारिश हो रही थी
मैंने एक पल के लिए ब्रह्मांड को सुंदर रूप दिया
आत्मसात किया
जैसे एक ठोस वस्तु तरंग बन जाती है
देखते ही देखते विचार बदले कि बस!
एक पल के लिए मैं कितनी दूर बह चला
जैसे ये पल भी उस पल का विस्तार है
जिस दिन बारिश हो रही थी।
दो
मैं बहता जा रहा था
आगे, आगे, बहुत आगे
कि तुमने मुझे श्मशान की याद दिला दी
दुपहर वह मई की
वह झरबेरियों से उलझना
पर तुमने क्यों कहा कि मैं बदल गया हूँ,
मुझसे बात भी नहीं की
मिली भी नहीं!
क्या मैं ऐसा बदल गया था
कि हम बात भी नहीं कर सकते थे।
शायद मैंने तुम्हारे मन में बसी
अपनी ही छवि तोड़ दी थी।
तीन
तुम ही थीं, जिसने मुझसे कहा,
किसी का मज़ाक़ उड़ाना नहीं अच्छा!
मैंने मन में बसा ली वह तरलता।
कोई कितना इंसान हो सकता है!
और कौन सिखाता?
चार
मैं तुम्हें अपनी शक्ल देना चाहता था
तुम मुझे अपनी
समुद्र की लहरों को मैं बाँहों में समेट लेना चाहता था
तुम किनारे-किनारे थोड़ी दूर जाना चाहती थी
नाव में ठहरे जल में
हमने देखा अपना बिंब
तुम अलग—मैं अलग—बहुत
दूसरी नाव में लेटा मैं
अलग हो गया अचानक
तुमसे—समुद्र से—सबसे
ये सबसे ध्वंसक पल था
मैं बाद में आत्मसात कर पाया
बहुत बाद में बात कर पाया
वह समुद्री खोह का कालापन
मांसल एकदम ठोस
मांस का लोथड़ा
समुद्र में गहरे-गहरे डूबते जाने जैसा
सुबह अचानक रात का नशा उतरा लगे जैसे
तूफ़ान में मिले हम, तूफ़ान में बिछड़े।
पाँच
उस रात मैं दुःखी था
दुःख से टूटा था
दुःख से भरा हुआ
वंचना का दाह
उपेक्षा की कड़वाहट
क्रूरता का दर्शन
विश्वासघात का डर जैसे
मैं तुम्हारे सामने इतना बच्चा हो गया
कि ख़ुद डर गया।
छह
जुनूँ का एक पल वो अगर ज़िंदगी बदलता
मैं खींच लाता आज तक वो दुपहर, वो गली
तुम्हारी एड़ियों के ऊपर जो दूज का चाँद रखा है
तुम्हारे कँधे के ठोसपन ने जो लरज़ मुझे दी है
लगता है आज भी उस गली में तुम्हारी एड़ियों पर
दूज का चाँद रखा हो जैसे
—
मैंने एक घर चुन लिया था
एक ज़िंदगी
एक शहर चुन लिया था
एक नदी वहाँ बहती थी
रेल के पुल के नीचे
जहाँ हम शाम को घूमने जाया करते थे
मैं ख़ूब मेहनत करता था
तुम ख़ूब ख़ुश होती थीं
तुम ख़ूब मेहनत करती थीं
मैं ख़ूब ख़ुश होता था
वहाँ गाड़ियाँ तेज़ चलती थीं
शाम को बाज़ार में खाने-पीने की
तमाम तरह की चीज़ें मिलती थीं
वहीं एक गली में मैदान के पास
मैंने घर ले लिया था
(मुझे और अच्छे से याद नहीं!)
—
मैं तुम्हारे इतने पास होना चाहता था
कि मेरा दिल फटने लगता था
साँसे तेज़ होने लगती थी
इतने पास के ख़याल से ही
—
मैं इतनी तेज़ दौड़ा
तेज़, और तेज़
मेरी साँस फूलने लगी
सीना फटने लगा
मैं और, और लंबे डग भरने लगा
थंबे, नाले, नदियाँ, पुल कूदने लगा
मैदान-पहाड़-देश-ग्रह-नक्षत्र
मैं तारों के महासमुद्र में तैरने लगा
तेज़-तेज़-और तेज़—मैं पार करता गया—
एक महासमुद्र से दूसरे महासमुद्र से तीसरे महासमुद्र
मैं साइकिल से गिर पड़ा
और मैंने महसूस किया
मेरे सिर पर तुम्हारी हँसी
जुनून बनकर खड़ी है।
सात
वह रहस्य जन्म का जीवन का
रसमयी लालसा, विस्मयी वासना
उष्ण द्रव वसीय वह
मध्यमिका जैसे शरीर से परे किसी ताप में
प्रथम आविष्कार
वह न गंध न रूप न आकार
केवल एक उष्ण तरल एहसास
वाष्प की तरह अब भी जमा जैसे छाती मैं।
आठ
मैंने ठुकराया तुम्हारा प्यार
मैंने तुम्हें छीज-छीजकर मरते देखा
मैंने तुम्हारी देह को गलते देखा
मैंने बहुत कामना की
तुम्हें गले लगाने की
पर जब सब कुछ छुट गया
तुम एक दिन विलीन हो गईं
किस वक़्त पता नहीं
मुझे तुम्हारी लाश से क्या मतलब!
मैं तुम्हारा प्यार ठुकरा चुका था
पर एक इच्छा थी
तुम्हें गले लगाता
और हम लोग मगरे तक घूमने चलते एक बार।
नौ
दुपहर है
नीम-नील, नीम-सफ़ेद दीवार है
मैं एक पल के लिए उसके इतने नज़दीक़ हूँ
कि उसकी साँसें अपनी गर्दन पर महसूस कर सकता हूँ
एक उसी पल में
मैं घबरा जाता हूँ
अपने-आपसे
पीछे हट जाता हूँ
अचानक एक आवाज़, दुपहर खींच लेती है।
आगे नहीं…
मैं पीछे हटता जाता हूँ!
इसके आगे क्या…
दस
फिर बारिश हुई नदी पर
रात के आख़री-आख़री पहर
साँय-साँय में घुल गई
बूँद-बूँद फिर लहर-लहर
—
मैं मिट्टी के इतने पास
तुम्हारे इतने पास
आम की जड़ के इतने पास
जैसे यहीं मिलनी मुझे
युगों से मुझे ढूँढ़ती : तस्कीन!
—
मैं फिर तुमसे प्यार करना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारी लासानी मूर्ति बना रहा हूँ।
मैं कल इसे तोड़ने का वादा करता हूँ,
मैं फिर तुमसे प्यार करना चाहता हूँ।
—
वहाँ एक नदी है
गरजती हुई
सफ़ेद
वह एक चट्टान को सदियों से विलीन करने में लगी है
वह चट्टान अब भी है वहाँ
उस पर हमारे पाँव के निशाँ
वे आत्म-आहुतियाँ
घुलती जाती हैं एक समग्र इतिहास में
एक पल में
दरवाज़े बनते
रँगाई होती है
सदियों की रुकी चर्चाएँ जैसे चल पड़ती हैं
हवा चलने लगती है
प्लास्टिक की बोतल
एक झटके में
ज़मीन से सौ फुट ऊपर घूमने लगती है
जमने लगती है
फिर धीरे-धीरे ज़मीन पर धूल
बगुले छिप जाते हैं इमली की कोटरों में
हरी घास के साथ भीगते हैं झींगुर
मैं दूर तक देख सकता हूँ अनाकुल मन से
बारिश और सिर्फ़ बारिश
भीगना और सिर्फ़ भीगना
मक़बरों की टूटी हुई ईंटें
परित्यक्त मीलों में मशीनें
ट्रकों के टायर भीगते हैं
भीगती हैं झरबेरियाँ और मेंहदी
भीगते हैं अंजीर और बबूल
भीगते हैं मैं और तुम
और अपराजिता के फूल!
- रचनाकार : उस्मान ख़ान
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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