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रानीखेत से हिमालय

ranikhet se himale

अजीत रायज़ादा

अजीत रायज़ादा

रानीखेत से हिमालय

अजीत रायज़ादा

और अधिकअजीत रायज़ादा

    बेलव्यू बंगले के लॉन पर

    खुले मौसम में

    आरामकुर्सी डाल कर

    बैठा रहा हूँ

    मैं अक्सर

    देखता वादियों और पहाड़ियों के पार

    हिमालय को

    वह भी बैठा रहता है

    मेरी तरह

    धरती की आरामकुर्सी पर पसर कर

    फ़र्क़ केवल इतना है

    कि मैं कश्मीर-यात्रा के समय

    ख़रीदी हुई

    पशमीना की शॉल ओढ़े हूँ

    और वह प्रकृति द्वारा लपेटी गई

    बर्फ़ की चादर

    हम दोनों

    देखते हैं एक दूसरे को : मौन

    कह नहीं पाते

    कुछ कहना चाहते हुए

    शायद

    कहने को कुछ है भी नहीं

    फिर भी

    एक दूसरे को देखना

    लगता है भला

    मैं सोचता हूँ कि

    हिमालय क्या सोचता होगा

    क्या कुछ भी नहीं

    कब तोड़ेगा वह

    अपनी रहस्यमय चुप्पी

    अगर वह बोलेगा तो क्या बोलेगा

    कैसी होती उनकी आवाज़

    जब बोलेगा तो क्या

    बोलता ही चला जाएगा

    अथवा बीच में रुक कर

    कुछ सोचने लगेगा

    क्या वह सुना पाएगा सचमुच

    हज़ारों-लाखों साल की

    आँखों देखी ख़बरें

    क्या उसकी बूढ़ी आँखों के सामने

    धुँधला नहीं पड़ा होगा

    इतिहास का सतत प्रवाह?

    सोचते-सोचते

    ठंडी पड़ जाती है

    पास मेज़ पर रखी गरम चाय

    और हवा में उड़ने लगते हैं

    इधर-उधर

    अख़बार के पन्ने।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हाशिए पर आदमी (पृष्ठ 39)
    • रचनाकार : अजीत रायज़ादा
    • प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1991

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