कैसी कराल आज की रात, बहे झंझा पवन।
तारा न कोई गगन में, सुनाई दे रहा गर्जन।
मूसल धार के झटके पछाड़ देते हैं कभी।
सोए रहो, बेटे, जानते नहीं तुम कुछ अभी।
आज क्वार पूर्णिमा, कितने नेह लाड़-चाव।
नव वस्त्र पहन, माँ-बहन का अथाह आदर-भाव।।
याद कुछ नहीं, आँखों को घेरे होगा घोर विषाद।
हलदी सने कपड़ों में जोहती होगी जननी,
मीठा-सीठा सुख से खा न सकेगी आज भगिनी।
पवन झंकार में सुनती होगी तेरी पुकार,
पलकों ही पलकों चौंक होती होगी कातर।
उनके हृदय सागर में जहाज़ फटता होगा,
निराशा में आशा का दीप वहाँ चमकता होगा
जननी की गहरी वेदना, भगिनी का विषाद,
नींद टूट जाती होगी, सपने में कर याद।
सो जा सो जा प्यारे, चैन से खोए रह बबुआ,
दूर से आए हो, थके, कुछ विराम करते जा।
रुक-रुक आँधी-तूफ़ान रुक जा मेहपानी,
कुँआर पूनों हो रे आज की रात सारी।
उठ आती नील लहरें तारों को भेद
निशामणि शोभा दें, गगन में यही मुकुर माँज।
स्वर्ग की रजत किरणें फैल जाएँ भूतल
सरस बालुका वितान हँसे ज्योत्सना खेले खेल।
पेड़-पत्तों के बीच तिल-तंडुल-छाँव,
दूर चक्रवात-सीमांत भग्न मंदिर अहो।
पूर्णिमा-ज्वार पुलक में भरा तटिनी-मुख
मृदुल-लहर हिलोर चारु-चाँद मयूख।
विह्वलित-नदी-औरस से नभ विमल रुचि,
वृंत चूल पर शिशु हृदय उठेगा नाच।
कभी मैं शिशु था, याद आ रहा मुझे
बैठ शिशु बीच देखते यह वैभव रुचि में।।
रात बहुत हो गई, क्यों वतास आज आता
बार-बार बरसा कौन-सा बदला लेता।
चंद्रिका-धवल-कोर्णाक-प्राचीन कीर्ति माला,
देखना न हुआ, अब तुम मन स्थिर बना।
बहुत सुख में शिशु देखकर शरत काल,
रात शेष, एक बार देखें नभ में चाँद विमल।
विमल निशा में तटिनी बह जा सागर को,
तारों के झिलमिल में लहरें उठे सागर में।
प्रांतर-प्रहरी-पादप यहाँ चंद्रिका पर,
धीरे मरमर पत्तों के दिखें वहाँ शिखर।
ऐतिहासिक भूमि यह, यहाँ बालक समूह,
इतिहास-समृति पुलक में हो जाते हैं विह्वल।
देखते कोणार्क की ओर प्रचीर-तल,
फिर आते दो घड़ी रामचंडी शिखर।
बेलेश्वर-वंत पास ही थिरकता नयन में,
देखेंगे बड़ देवल कभी इन नेत्रों में।
आत्म-विभोर हो मिलेंगे पूर्वजों के संग में।
अतीत से अतीत में प्रसार बहती जीवन धारा,
व्याप जाएगी, विस्तार में भेदकर शरीर सारा।।
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 36)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : नीलकंठ दास
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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