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पूजा अब इफ़्तार लेने नहीं आती

puja ab iftaar lene nahin aati

आसिम अंसारी

आसिम अंसारी

पूजा अब इफ़्तार लेने नहीं आती

आसिम अंसारी

बसंत भाई आते हैं

आँगन में पड़ी चारपाई पर बैठ जाते हैं

पूछते हैं किसी दूर के रिश्तेदार की तरह—

'आऊर चच्ची ठीक बा'

'आऊर चच्चा ठीक बा'

कभी हम ही पूछ बैठते हैं—

'आऊर बसंत सब ठीक बा न!'

बसंत भाई के चेहरे पर

सिकुड़न की रेखाएँ उभरतीं

होठों के कोरों से मुस्कान बिखरती

चहकते हुए वे बोलते—

'हाँ चच्ची तोहार लोगन के दुआ बा'

'हाँ चच्चा तोहार लोगन के दुआ बा'

'अल्ला के करम बा'

पर कहते-कहते मखा जाते वे

ग़म की अतल गहराइयों में

गोते लगाने लगते

उनकी आवाज़ लरज़ने लगती...

उनके चेहरे की

चहकनुमा घाटियों में

जिलावतन हो जाने का दर्द

भर-भर आता...

बसंत भाई अब भी आते हैं

हमारे यहाँ ईदी मनाने

सेवई पीने

पर अब उनके साथ तक़ल्लुफ़ भी

दबे पाँव देता है दस्तक

एक झीना परदा बन जाता है

...

हमारे बीच

...

और हम सहज नहीं रह पाते

और पूजा!

वो भी अब मोहल्ले की मस्जिद से

अपने इफ़्तार का हिस्सा

लेने नहीं आती

जाने कहाँ गुम हो गई

वह बसंत भइया की कम

मोहल्ले की ज़्यादा बिटिया

आता है याद

जब आती थी वो

अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों में

कटोरे को थामे

शकूर मुअज़्ज़िन की

ऊँची आवाज़ गूँज उठती

मस्ज़िद के सेहन में

'दे रे! बिटिया के इफ़्तारी दे!'

छूटते ही

मुसाफ़िरों को इफ़्तार लगा रहा

मोहल्ले का कोई भी मौजूद फ़र्द

परई भर घुघनी

उसके कटोरे में कुरए देता

और पकौड़ी-मलगजे-पापड़ों की

रंग-बिरंगी क़िस्मों से

सजा देता

उसके इफ़्तार की थाली

थाली नहीं

कटोरा

क्योंकि

पूजा हमेशा कटोरा ही लाती थी!

स्रोत :
  • रचनाकार : आसिम अंसारी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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