अपने देश से बिछड़ने के बाद अलमुस्तफ़ा ने आर्फ़लीज नगर में अपने जीवन के बारह
सुनहरे वसंत बिता दिए थे।
बारह वर्ष बाद भी उसके दिल में अपने देश की याद और आँखों में देश की ओर वापस
जाने वाले जहाज़ की व्याकुल प्रतीक्षा बसी हुई थी।
आख़िर बारह साल बाद एक दिन...
इलूल (असौज) महीने की सातवीं तारीख़ को उसने नगर के परवर्ती पर्वत के शिखर
पर चढ़कर देखा, एक जहाज़ समुद्र पर छाए गहरे कुहासे को चीरता उसी ओर बढ़ रहा था।
उस घड़ी अलमुस्तफ़ा के हृदय-कपाट स्वयं खुल गए। मन का उल्लास क्षितिज तक
फैले सागर की तरंगों से खेलने लगा, आह्लाद-प्लावित पलकें मन के मौन मंदिर में प्रभु-
चरणों पर झुक गई।
लेकिन पर्वत शिखर से उतरते समय क़दम भारी हो गए, मन पर उदासी छा गई।
उसने सोचा :
क्या मैं वियोग की पीड़ा से शून्य ही यहाँ से विदा हो सकूँगा?
इस नगर में मेरे दिन दुःखों से दुर्वह और रातें एकांत पीड़ा से अनुतप्त बीती हैं।
लेकिन इस अनुताप और एकांत को छोड़ते हुए मन विह्वल हो रहा है।
इस नगर की वीथियों में मैंने मन के मोती बिखेरे हैं और इन पर्वतों के अंचल में मेरी
स्वप्रिल आशा-अभिलाषाएँ साँस ले रही हैं! विरह-वेदना का अनुभव किए बिना मैं कैसे
उनसे विदाई ले सकता हूँ!
उन्हें तन के जीर्ण वस्त्र की तरह उतारकर मैं कैसे उनकी याद अलग कर सकता हूँ। उनसे
बिछड़ते हुए मुझे अनुभव होता है, मानो मैं अपनी देह की त्वचा को देह से अलग कर रहा
हूँ।
किंतु अब मैं यहाँ और ठहर भी नहीं सकता।
अतले समुद्र का आह्वान सबको बुला लेता है; मुझे भी बुला रहा है; मुझे भी जाना
ही होगा।
अब यहाँ जड़वत् स्थिर रहने का अर्थ होगा, बर्फ़ में स्फटिक बनकर निर्जीव साँचों में
ढल जाना। यह कैसे होगा, जब कि समय के पंख रात की ज्वालाओं में जल रहे हैं।
मैं चाहता हूँ, आर्फ़लीज की हर चीज़ समेट कर ले जाऊँ।
मगर कैसे?
अधर और जिह्वा से पंख पाकर भी वाणी उन्हें अपने साथ नहीं ले जा सकती।
हंस को भी, जब वह मानसरोवर की ओर उड़ता है, अपना नीड़ छोड़ना पड़ता है।
पहाड़ की तलहटी पर आकर अलमुस्तफ़ा फिर समुद्र की और मुड़ा और उसने देखा
कि उसके देश का जहाज़ देश के मल्लाहों के साथ तट की ओर बढ़ रहा था।
उसकी आत्मा पुकार उठी, जननी-जन्मभूमि के पुत्रो! सागर-तरंगों पर खेलने वालो!
सहस्रों बार तुमसे सपनों में मिला हूँ किंतु आज जागृति में, जो स्वप्र से भी गहन है, पहली
बार साक्षात् हो रहा है।
मैं अपनी बेचैनी के पंखों को पाल बनाकर साथ चलने को तैयार हूँ।
अब इस शांत, सहमी-सी हवा में मुझे कुछ ही साँस और लेने हैं, और शायद अंतिम
बार अपनी ममताभरी आँखों से इस धरती का स्पर्श करना है।
उसके बाद मैं भी तुम्हारे साथ के समुद्र-प्रवासियों में से एक प्रवासी बनूँगा।
जो अनंत परिधि सागर! ओ निद्राविलीन माता! तू ही मुक्त भाव से अविराम बहती
जलधाराओं का अंतिम विराम है।
अब इस धारा का एक ही मोड़ शेष है।
उसके बाद मैं तेरे संग चलूँगा; जैसे एक अनंत बूँद अनंत सागर के संग।
उसने देखा कि नगर के नर-नारी अपने अधजुते खेतों से नगर-द्वार की ओर दल-के-दल
बड़े आ रहे थे। उनके अधीर होंठों पर उसका ही नाम था।
अलमुस्तफ़ा अपने से कह उठा :
क्या वियोग का यह दिन ही मिलन का दिन होगा?
जिन्होंने अनुमय-विनय की कि वह (अलमुस्तफ़ा) उनसे विदा न हो। अलमुस्तफ़ा
मौन था। उसका मस्तक झुक गया था, उसके वक्ष पर अश्रुधारा प्रवाहित थी।
यह बात केवल पड़ोस में खड़े लोगों ने देखी।
तदुपरांत सब लोग मंदिर-प्रांगण की ओर चल पड़े।
वहाँ एक देवालय से अलमित्रा नाम की देवी बाहर आई, जो साधिका थी।
अलमुस्तफ़ा ने उसकी ओर अत्यधिक स्रिग्ध-कोमल भाव से आँख उठाई। यह वही
थी, जिसने अलमुस्तफ़ा को प्रवास के प्रथम दिन अपना विश्वास देकर आत्मीय बनाया था।
देवी ने अलमुस्तफ़ा का इन शब्दों में स्वागत किया :
ओ परम तत्व के शाश्वत शोधक! ईश्वर के दूत! तुमने अपने देश की ओर जाने वाले
जहाज़ के लंबे मार्ग की अनंत प्रतीक्षा की है।
आज वह जहाज़ आ गया है—तुम्हें अब जाना ही होगा। मैं जानती हूँ, बीते दिन की
स्मृतियों और भविष्य के स्वप्नों की गहरी उत्सुकता तुम्हारे प्राणों को अधीर कर रही है।
हमारे प्रेमपाश तुम्हें नहीं बाँधेंगे। स्वार्थ तुम्हारे पैरों की ज़ंजीर नहीं बनेगा।
लेकिन हमारी यह प्रार्थना है कि विदा होने से पहले हमें अपना 'सत्य' दे जाओ।
हम उस 'सत्य' को अपनी संतानों को देंगे, वे अपनी संतानों को, और इस प्रकार वह
अमर रहेगा।
तुमने हमारी चिंताओं में साथ दिया है और जागते हुए तुमने हमारी नींद के हँसने-
रोने की भी सुना है।
इसलिए अब हमें ही हमारे आगे अनावृत्त करो और जन्म व मृत्यु के मध्य के जो गहन
रहस्य तुमने देखे हैं, उन्हें प्रकट करो।
अलमुस्तफ़ा ने कहा : आर्फ़लीज-निवासियो! मैं तुमसे वही कह सकता हूँ जो तुम्हारी
अंतरात्मा कहती रही है; उसके सिवाय मैं भी तुमसे क्या कह सकता हूँ!
तुम प्रश्न करो, मैं अपने शब्दों में तुम्हारे ही अंतर में निहित सत्य को प्रकट करने का
यत्न करूँगा।
तब नगर-निवासियों ने एक-एक अपने मन में छिपे प्रश्नों को प्रकट किया।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.