तब शहर के न्यायाधीशों में से एक सामने आकर बोला 'अपराध और दंड' के विषय में
कुछ कहिए!
उत्तर मिला :
जब तुम्हारा मन हवा के पंखों पर निर्बाध उड़ता है, तभी तुम अकेले और अनियंत्रित
होकर दूसरों का अहित करते हो, अपना भी।
उसी अतिक्रमण का यह दंड है कि तुम देवता के द्वार पर कुछ देर तक उपेक्षित खड़े
रहकर द्वार खटखटाओ।
तुम्हारा अंतर्वासी प्रभु सागर के समान है।
वह सदा शुद्ध-निर्मल रहता है।
वह पवन की तरह है जो पक्षहीनों को ऊपर उठाता है।
तुम्हारा अंतर्वासी प्रभु सूर्य के समान भी है।
न उसे साँपों के बिलों का अभिज्ञान है और न चीटियों के क्षुद्र छिद्रों की ही वह तलाश
करता है।
किंतु वह अंतर्वासी अकेला तुम्हारे भीतर ही नहीं रहता।
अब भी तुममें अधिकांश मानव ही हैं और साथ ही अमानव भी।
अंतर्वासी अपनी निद्रा में ही पर्यटन करता है—अपने जागृत रूप को खोजने के लिए।
मैं उसके नहीं, बल्कि तुम्हारे अंतर के मानव के संबंध में ही कहूँगा।
क्योंकि वह मानव है, जो अपराध और दंड का विवेक रखता है; न कि तुम्हारे भीतर
का सूक्ष्म और अस्पष्ट रूप से विद्यमान अतिमानव।
अपराधी के विषय में मैंने तुम्हें प्रायः यह कहते सुना है कि वह तुम्हारे मध्य का नहीं, बल्कि
कोई अजनबी और तुम्हारी दुनिया में अनधिकार प्रवेश करने वाला है।
किंतु, मैं कहता हूँ, जैसे तुम्हारे मध्य परमपवित्र मानव अपनी शक्ति भर ऊँचा
उठकर भी उस शिखर पर नहीं पहुँचता जो मानव मात्र के अंतर में विद्यमान है; वैसे ही
अधम से अधम मानव भी गहरी से गहरी खाई में गिरकर भी उस गहराई तक नहीं गिरता,
जो मानवमात्र के अंतर में विद्यमान है।
और जैसे वृक्ष के एक पत्ते का पीला पड़ना पूरे वृक्ष के मौन समर्थन के साथ होता है,
वैसे ही समाज के किसी व्यक्ति का अपराधी होना समाज के मौन समर्थन के बिना संभव
नहीं।
उत्सव की महायात्रा के समान यह संपूर्ण मानव-समाज एक ही मार्ग का सहयात्री
है।
तुम्हीं पथ हो और तुम ही पथिक।
जब तुम्हारे साथ का कोई पथिक राह में ठोकर खाकर गिरता है, तो गिरकर भी वह
अपने पीछे आने वालों को ठोकर खाने से सावधान करके अपना कर्त्तव्य पूरा करता है।
गिरने वाला पथिक उन द्रुतगामी साथियों के प्रमाद के कारण ही गिरता है जो ठोकर
खाकर भी मार्ग के पत्थर नहीं चुनते।
और यह भी एक कटु सत्य है कि,
—हत्या के लिए वह भी उत्तरदायी है, जिसकी हत्या हुई है।
—ठगा हुआ आदमी भी ठगी के अपराध से सर्वथा निर्दोष नहीं होता।
—अधम कार्यों के दायित्व से सज्जन भी सर्वथा मुक्त नहीं रह सकते।
—पापियों के कलुष काम निष्पाप व्यक्तियों के भी हाथ रंग देते हैं।
अधिक क्या, अपराधी प्रायः समाज-पीड़ित व्यक्ति का ही सताया होता है।
और यह देखा गया है कि दंडित अपराधी प्रायः निर्दोष होता है और उन व्यक्तियों
का पाप-भार वहन करता है जो स्वयं को निष्पाप-निष्कलंक कहते हैं।
श्वेत-अश्वेत, भले-बुरे और साधु-असाधु को पृथक् कक्षाओं में विभक्त नहीं किया जा
सकता।
क्योंकि वे दोनों श्वेताश्वेत सूर्य के समक्ष एक ही पंक्ति में खड़े हैं, ठीक उसी प्रकार जिस
प्रकार सफ़ेद और काले सूत से बुना हुआ वस्त्र।
जब वस्त्र का काला सूत टूटता है, तो जुलाहे को केवल काले सूत की ही नहीं बल्कि
समस्त तंतुवाय की छान-बीन करनी पड़ती है। तंतुवाय की ही नहीं कपड़ा बुनने वाले
करघे की भी परीक्षा करनी होती है।
यदि तुममें से कोई असाध्वी पत्नी के पाप को न्याय की तुला पर तोले तो उसे चाहिए
कि वह उसके पति के हृदय को भी उसी तराज़ू से तोले और उसकी आत्मा को भी पलड़ों में
रखकर उसकी परीक्षा करे।
अपराधी को दंडित करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह दंड देने से पहले अपराधी
की आत्मा पर भी दृष्टि डाले।
यदि तुममें से कोई धर्म के नाम पर दंड देता है और अधर्म के वृक्ष पर कुल्हाड़ी
चलाता है, तो उसे चाहिए कि वह वृक्ष की जड़ पर प्रहार करे।
तब निश्चय ही वह यही जानेगा कि वृक्ष की साधु-असाधु, उपयोगी-अनुपयोगी
वस्तुएँ पृथ्वी के मौन अंतःकरण में एक-दूसरे की भुजाओं में गुँथी हुई हैं।
तुममें से कौन है जो निर्दोष न्याय कर सकता है। तुम उस व्यक्ति को क्या दंड दोगे
जो बाह्याचरणों से पापरहित प्रतीत होता है किंतु अंतर्मन से पापी है?
और उसे कौन सा दंड दोगे, जो दूसरों का वध करने के साथ स्वयं अपनी आत्मा का
भी हनन कर लेता है?
और उस पर कौन-सा दंड-विधान लागू करोगे, जो प्रत्यक्ष में ठग और लुटेरा है;
किंतु परोक्ष में स्वयं भी, दूसरों से सताया और ठगा गया है?
और जिनकी अंतर्वेदना उनके दुष्कृत्यों से कहीं अधिक बढ़ चुकी है, उन्हें कौन-सा दंड
दोगे?
क्या वह अनुसंताप ही न्याय नहीं, जो उसी विधान की परिणति है, जिससे तुम सदा
अनुशासित हो?
न तुम निरपराध व्यक्ति के मन में अनुसंताप भर सकते हो और न ही अपराधी की
आत्मा को संताप-मुक्त कर सकते हो।
वह मनस्ताप स्वयं अनाहूत मन में प्रवेश करता है, ताकि अपराधी मनुष्य अपनी
अंतरात्मा को पैनी नज़र से देख सके और आत्मनिरीक्षण कर सके।
तुम, जो न्याय का दावा भरते हो, तब तक किस प्रकार न्याय को समझ सकोगे—जब
तक कि तुम समग्र प्रकाश में सत्य को न देख सको?
तभी तुम बहू समदृष्टि पाओगे जिसके लिए उन्नत और पतित, अहंभाव पूर्ण अंधकार
और दिव्यभाव पूर्ण प्रकाश, दोनों ही, गोधूलि बेला में खड़ी एक ही छायामूर्ति के दो पहलू
हैं।
उस समय तुम्हारे समक्ष यह प्रकट हो जाएगा कि देवस्थान के शिखर का पत्थर
उसकी नींव की सबसे नीची सतह में गड़े पत्थर से किसी प्रकार भी अधिक ऊँचा नहीं
होता।
- पुस्तक : मसीहा
- रचनाकार : ख़लील जिब्रान
- प्रकाशन : राजपाल एंड संस
- संस्करण : 2016
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