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प्रेम किसी अनैतिक विचार जैसा था

prem kisi anaitik wichar jaisa tha

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

प्रेम किसी अनैतिक विचार जैसा था

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    गीली माटी में रंग मिलाने की प्रक्रिया देखी है तुमने

    बिल्कुल प्रणय जैसी है

    शोक से मुक्त

    भुजाओं की मछलियाँ जल के बाहर भी जीवित रहती हैं

    कुम्हारटुली के निर्वसन शिल्पकार की देह में

    आते रहते है मेह

    तुहिन झरता रहता है माघ की रात्रि

    फिर भी जाने कैसा ताप रहता है

    जो दग्ध होता जाता है उसका मुख

    और अरुणिम पड़ जाती है मूर्ति की हथेली

    1884 में तुम होते यहाँ तो देखते

    स्पर्श से कातर है कलकत्ते के सब कवि

    राष्ट्रीय पुस्तकालय जाने वाले

    रुक जाते हैं प्रेयसी के द्वार पर

    पूछते हैं कोचवान से

    क्या यही समारोह की निर्दिष्ट जगह है?

    तुमने नहीं देखा होगा किंतु

    मरी हुई बिल्लियों को दफ़नाने जाते कहारों ने देखा है

    प्रेम के जैसे

    वे बीतते हर क्षण में रंगहीन हुई जाती हैं

    प्रेम जैसी ही है

    चित्र में कविता लिखने की कला

    प्राग के एक कवि के यहाँ साँस लेती है

    और ठाकुर के भुबनडाँगा वाले कमरे में अब भी सज्जित है

    जाने क्यों लगता है

    तुम्हारे चुंबनों की तरह

    फूल बेचने का व्यापर भी प्रेम जैसा है

    अर्थी की गूढ़ता भी तुष्ट होती है

    और काया भी लथपथ रहती है गंध में

    जैसे प्रणय के पश्चात रहती है

    तुम कुछ बरसों बाद मिलना और पूछना

    मुझे याद रहेंगी वे सब किताबें जिनमें

    प्रेम किसी अनैतिक विचार जैसा था

    एक मधुमल्ली की तरह खिला और नहीं देखा

    यह अनुचित जगह है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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