यार, ख़ूब मन लगाकर शादी कीजिए
फिर ख़ूब मन लगाकर बनारस आ जाइए
सुनिए उस कारख़ाने के सायरन की आवाज़ जो सन् 2000 में ही बंद हो गया
रोज़ाना 8 बजे, 1 बजे, 2 बजे, 5 बजे
धिन धिन धाधमक धमक मेघ बजे
आइए तो मिलकर पता लगाया जाए कि वह आवाज़ आती कहाँ से है यह भी संभव है कि वह आवाज़ सिर्फ़ मुझे ही सुनाई देती हो एकाध बार मैंने रमेश से पूछा भी कि कुछ सुनाई दे रहा है आपको तो वह ऐसे मुस्कराए जैसे मेरा मन रखने के लिए कह रहे हों की हाँ
दिक़्क़त है कि लोग सायरन की आवाज़ सुनना नहीं चाहते नए लोग तो शायद सायरन की आवाज़ पहचानते भी न हों सायरन बजता है और वे उसकी आवाज़ को हॉर्न, शोर, ध्वनि प्रदूषण और न जाने क्या-क्या समझते रहते हैं। नाक, कान, गले के डॉक्टर ने मुझसे कहा कि तुम्हारे कान का पर्दा पीछे चिपक गया है और ढंग से लहरा नहीं पा रहा है—इसकी वजह से तुम्हें बहुत-सी आवाज़ें सुनाई नहीं देंगी तो मैंने उनसे कहा कि मुझे तो सायरन की आवाज़ बिलकुल साफ़ सुनाई देती है—रोज़ाना 8 बजे 1 बजे 2 बजे 5 बजे, तो वह ऐसे मुस्कुराए जैसे मेरा मन रखने के लिए कह रहे हों की हाँ
यार, ख़ूब मन लगाकर शादी कीजिए फिर ख़ूब मन लगाकर बनारस आ जाइए आप में हीमोग्लोबिन कम है और मुझे सायरन की आवाज़ सुनाई देती रहती है आइए तो मिलकर पता लगाया जाए कि वह आवाज़ आती कहाँ से है
कारख़ाना बंद है तो सायरन बजता क्यों है जहाँ कारख़ाना था वहाँ अब एक होटलनुमा पब्लिक स्कूल है स्कूल में प्रतिदिन समय-समय पर घंटे बजते हैं लेकिन सायरन की आवाज़ के साथ नहीं बजते। सायरन की आवाज़ के बारे में पूछने के लिए मैंने स्कूल की डांस टीचर को फ़ोन किया तो वह कहने लगी कि पहले मेरा उधार चुकाओ फिर माफ़ी आदि माँगने पर उसने कहा कि उसकी कक्षा में नृत्य चाहे जिस ताल में हो रहा हो, ऐन सायरन बजने के मौक़े पर सम आता ही है। परन, तिहाई, चक्करदार—सब—सायरन के बजने की शुरुआत के बिंदु पर ही धड़ाम से पूरे हो जाते हैं।
मसलन तिग दा दिग दिग थेई, तिग दा दिग दिग थेई, तिग दा दिग दिग पोंऽऽऽ
(यहाँ—तिग दा दिग दिग—कथक के बोल
पोंऽऽऽ—सायरन की आवाज़)
सायरन की आवाज़ न हुई, ब्लैकहोल हो गया। बहुत-सी चीज़ों का अंत हो जाता है उस आवाज़ की शुरुआत में—पिता, पंचवर्षीय योजना, पब्लिक सेक्टर, समूह, प्रोविडेंट फंड, ट्रेड यूनियन और हड़ताल—सब—सायरन के बजने की शुरुआत के बिंदु पर ही धड़ाम से पूरे हो जाते हैं
कभी-कभी धुएँ और राख़ और पानी और बालू में से उठती है आवाज़। वह आदमी सुनाई दे जाता है जो इस दुनिया में है ही नहीं कभी-कभी मृत पूर्वज बोलते हैं हमारे मुँह से। बहुत-सी आवाज़ें आती रहती हैं जिनका ठिकाना हमें नहीं पता। वैसे ही, सायरन बजता है रोज़ाना आठ बजे एक बजे दो बजे पाँच बजे
जैसे मेरा, वैसे ही सायरन की आवाज़ का, आदि, मध्य और अंत बड़ा अभागा है। बीच में हम दोनों अच्छे हैं और आप सबकी कुशलता की प्रार्थना करते हैं। बीच में, लेकिन यही दिक़्क़त है कि पता नहीं लगता कि हम कहाँ हैं और ज़माना कहाँ है? नींद में कि जाग में, पानी में कि आग में, खड़े-खड़े कि भाग में।
आइए यार तो ढूँढ़ा जाए कि सायरन की आवाज़ कहाँ से आती है और हम लोग कहाँ हैं?
- रचनाकार : व्योमेश शुक्ल
- प्रकाशन : सबद वेब पत्रिका
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