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जयंती

jayanti

अलेक्सांद्र सेर्ग्येइविच

मुझे अपना परिचय देने की इज़ाजत दो—

मायाकोव्स्की!

हाथ बढ़ाओ।

मेरे सीने पर रखो।

सुनो,

अब यह धड़कता नहीं, कराहता है,

डरपोक, यह छोटा-सा शेर का पिल्ला

मुझे चिंतित करता है।

मैं नहीं जानता था

मेरे इस

बेहया, निश्चिंत दिमाग़ में

इतनी, हज़ारों

चिंताएँ हैं।

मैं तुम्हें घसीट रहा हूँ।

तुम चकित हो, क्यों?

पकड़ बहुत सख़्त है?

दर्द हो रहा है? माफ़ करना दोस्त।

मुझे और तुम्हें

अनंत तक जीना है।

घंटे दो घंटे

हो ही गए यदि बरबाद

तो क्या हुआ?

आओ, हम गपशप करते हुए

निकल चलें

जैसे हम बहता हुआ पानी हों।

आज़ाद,

बिल्कुल आज़ाद

जैसे वसंत में।

देखो,

आसमान में

चाँदनी

इतनी जवान है

कि

उसका यों अकेले गुज़रना

ख़तरे से ख़ाली नहीं।

प्रेम

और पोस्टरों से

मैं अब आज़ाद हो चुका हूँ।

पंजेदार ईर्ष्या के रीछ की

चमड़ी उधेड़ी जा चुकी है

खाल सूख रही है।

साफ़ है

कि पृथ्वी

ढलुवाँ हो चुकी है,

बैठ जाओ,

बस, अपनी चूतड़ टिका दो

और फिसल चलो।

नहीं,

मैं उदासी के अँधेरे में तुमको भटकाना नहीं चाहता,

नहीं

मुझे किसी से कुछ

नहीं कहना है।

सिर्फ़

हम-जैसे लोगों में

मछली-सी लय

कविता के रेतीले विस्तार पर तड़पती है।

सोचने में ख़तरा है

स्वप्न बेमानी है,

हमें वही-वही काम करना है

उन्हीं-उन्हीं रास्तों से

गुज़रना है।

मगर कभी ऐसा भी होता है

कि ज़िंदगी

करवट बदलती है

और इस टुच्ची दुनिया से गुज़रते हुए

दुनिया कुछ और समझ आती है।

कविता पर हमने

संगीनों से बार-बार

हमला किया है।

हमें तलाश है

एक ठोस

और निहत्थे शब्द की।

मगर यह हरामज़ादी कविता

अजब चीज़ है :

पीछा नहीं छोड़ती—

और कोई इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकता।

उदाहरण के लिए

इसी को लो,

इसे पढ़ें या मिमियाएँ

नारंगी मूछों वाली

इस नीली चीज़ का—

बाइबिल के नेबुचडनसर की तरह—

क्या कहते हैं इसे—

'कोपसाख’

ग्लास बढ़ाओ।

मैं जानता हूँ

इसका भी तरीक़ा

हालाँकि वह पुराना पड़ चुका है।

ग़म को

शराब में बहा दो

मगर याद रखो

लाल और सफ़ेद सितारे बरक़रार रहें

क़िस्म-क़िस्म के प्रवेशपत्रों की

ढेरी पर

तौले जाते रहें।

मुझे ख़ुशी है कि मैं तुम्हारे साथ हूँ—

ख़ुश हूँ

कि तुम मेरी टेबल पर बैठे हो।

तुम्हें यह संगति

किस तरह निःशब्द छोड़ जाती है।

तो अब बताओ

तुम्हारी वह ओल्गा

कौन थी...

क्षमा करना, वह ओल्गा नहीं थी।

वह तत्याना के नाम अन्येगिन का पत्र था।

किस तरह शुरू होता था?

इस तरह :

तुम्हारा पति

काठ का उल्लू है।

मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ

गोया तुम हमेशा मेरी रहोगी।

रोज़ सुबह वादा करो

दिन को मिलूँगी।

सबकुछ होता रहा

और खिड़की के नीचे

एक ख़त

(और शर्म की एक घबराई-सी लहर)

आह,

मगर जब आह करना भी संभव हो

तब

अलेक्सांद्र सेर्ग्येइविच,

सह सकना और भी मुश्किल हो जाता है।

इधर आओ, मायाकोव्स्की।

बढ़े चलो दक्खिन की ओर।

ज़ोर दो दिल पर,

मिलाओ तुक—

लो—

प्रेम भी समाप्त हो चला।

प्यारे व्लदीमिर-व्लदीमिरोविच।

नहीं,

इसे सठियाना नहीं कहते।

अपना स्थूल शरीर

अपने आगे

ढकेलता हुआ

मैं

सहर्ष

दोनों को सम्हाल लूँगा

और अगर बिफरा

तो तीनों को।

कहते हैं वे—

कि मेरी कविताएँ वै...य...क्ति...क हैं।

(आपस की बात है...)

अन्यथा, सेंसर की निगाह पड़ जाए,

वे कहते हैं मैं तुम तक पहुँचाता हूँ

उन्होंने

केंद्रीय कार्यकारिणी समिति के दो

सदस्यों को

प्रेम में रँगे हाथों पकड़ा है

यह है वह तर्ज़

जिसमें वे खुसुर-पुसुर करते हैं,

प्लीहा को

अभिव्यक्ति देते हैं।

उनकी बातों पर ध्यान दो

अलेक्सांद्र सेर्ग्येइविच

बहुत संभव है

कि मैं ही रह गया हूँ

जिसे इस बात का सचमुच ही दु:ख हो

आज तुम जीवित नहीं हो।

मैं कितना चाहता था

कि तुम जीवित होते

और मैं तुमसे घंटों बातें करता।

जल्द ही

मैं भी मर जाऊँगा, और मौन हो जाऊँगा।

मृत्यु के बाद हम दोनों

अगल-बग़ल खड़े होंगे

तुम 'प' की क़तार में।

मैं 'म' की।

हम दोनों के बीच कौन (खड़ा) है?

मुझे किसकी सोहबत में रहना होगा?

मेरे देश में कवियों का

बेहद अकाल है।

मेरे और तुम्हारे बीच,

कम्बख़्त तक़दीर ने यही चाहा था

कि नादसोन खड़ा हो।

ठीक है,

हम यह कहेंगे

कि उसे यहाँ से हटाकर

'ज्ञ' में भेज दिया जाय।

इधर नेक्रासोव है

कोत्या

स्वर्गीय अत्योशा का बेटा।

उम्दा ताश खेलता है,

कविता भी अच्छी लिखता है,

यही नहीं उम्दा दिखता है।

जानते हो उसे?

बढ़िया लौंडा है—

ख़ूब निभेगी उसे यहीं खड़े रहने दो।

बुरा सौदा नहीं है, मैं उनमें से थोक,

आधे तुमको दूँगा, आधे रख लूँगा।

जमुहाई लेते हुए

(मेरे) जबड़े तड़क रहे हैं।

मुँह फाड़े हुए हैं—

दोरोगोइचेन्को,

गेरासिमोव,

किराल्लोव,

रोदोव,

कैसा एकरस है यह दृश्य।

लो, वह रहा येस्येनिन।

गँवई किसान

हास्यास्पद।

एकदम गऊ

चमड़े के दस्ताने में क़ैद

उसे एक बार सुनो...

तय है कि वह भीड़ से आया है।

बललाइका वादक।

ज़िंदगी पर भी कवि की

पकड़ होनी चाहिए।

हमारी बात और है, पोल्तावा की शराब की तरह

हम लोग तगड़े हैं।

ठीक,

बेंजिमोन्स्की के बारे में क्या सोचते हो?

हूँ, ऐसा ही है।

बुरा नहीं है।

काफ़ी हो तो उसकी चुस्की ले सकते हो।

सच है,

हमारे पास अस्येयेव

कोल्का है।

चलेगा।

उसकी भी पकड़ मुझ-जैसी पक्की है।

मगर उसे

रोज़ी कमानी है

परिवार के लिए, जो कितना भी छोटा हो,

आख़िर परिवार है।

अगर तुम ज़िंदा होते

तो ‘लेफ' के सहायक संपादक होते।

मैं तुम्हें सौंप सकता था

पोस्टर का काम भी।

तुम्हें दिखाता

तुम ख़ुद अपनी आँखों देखते, यह किसका प्रचार है

तुम ज़रूर बना लेते

तुम्हारे पास उम्दा शैली है।

मैं तुम्हें देता रंग

और कैनवास

तुम बनाते इश्तिहार

'सुपरबाज़ार'।

(मैं तुम्हें

नाज़िर-हाज़िर करने

आदिम छंदोबद्ध

स्तुति कर सकता था)

मगर आज

उन छंदों के खेल का

समय नहीं।

अब हमारी क़लम

क़लम नहीं है संगीन है

छुरी-काँटा है, धारदार है।

क्रांति की लड़ाई

पोल्तावा से कहीं संगीन है।

और प्रेम

अन्येगिन के प्रेम से

कहीं शानदार है।

ख़बरदार, पूश्किनपंथियों से बचो,

सठियाये

क़लमघिस्सू,

सड़े हुए, जंक।

देखो तो उधर

पूश्किन 'लेफ' की तरफ़

मुड़ पड़ा है।

अश्वेत व्यक्ति

देरझाविन से

होड़ कर रहा है

उफ़।

मैं तुमसे प्रेम करता हूँ

मगर शव से नहीं

तुमसे सजीव।

लोगों ने तुम्हें

किताबी रौगन से मढ़ दिया है।

कोई बात नहीं मैं

प्रेम में शर्त बद सकता हूँ।

तूफ़ानी,

अफ़्रीक़ी संतान।

वह अभिजात कुत्ता,

सूअर का बच्चा दांतेस।

हम उससे पूछते

क्यों बे, कौन है तेरा बाप?

1917 के पहले

तू क्या करता था?

बता अपना ख़ानदान।

साफ़-साफ़ कह दूँ

उसके बाद नज़र नहीं आता

वह दांतेस।

मगर यह सब क्या बकवास है ?

अध्यात्म तो नहीं?

कहा जाए तो

आत्मसम्मान का ग़ुलाम

बंदूक़ की गोली से मारा गया...

जिस चीज़ की

आज भी कोई कमी नहीं

वे हैं

हमारी बीवियों को सूँघते हुए हर क़िस्म के शिकारी।

यहाँ सोवियतों के इस देश में

अच्छा है।

आदमी सलामत रह सकता है।

और आदमी ख़ुशी से काम कर सकता है।

दु:ख केवल इतना ही है

कि कवि नहीं हैं—

हालाँकि

बहुत संभव है

हमें उनकी ज़रूरत ही हो

अच्छा, वक़्त समाप्त हो चला

सुबह की लंबी-लंबी किरणें

रँग चलीं आसमान।

मैं नहीं चाहता

कि सिपाही पहुँचें “तू-तू मैं-मैं करें।

हम तुमसे बिल्कुल अभ्यस्त हो चुके हैं।

अतः, आओ, मैं तुम्हारी मदद करूँ

फिर से तुम्हें चबूतरे पर स्थापित कर दूँ।

सरकारी तौर पर

मेरी भी मूर्ति स्थापित होनी चाहिए थी।

मगर मैं उसमें बारूद

भर देता

और

धड़ाम।

मैं हर क़िस्म की मृत्यु से

नफ़रत करता हूँ।

मैं हर क़िस्म के जीवन से

प्रेम करता हूँ।

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक रूसी कविताएँ-1 (पृष्ठ 91)
  • संपादक : नामवर सिंह
  • रचनाकार : व्लादिमीर मायाकोव्स्की
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  • संस्करण : 1978

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