मैं इस पल के छोर पर
सभ्यताओं का टूटना देखता हूँ
देखता हूँ
उद्दाम लहरें टकरा रही हैं
अत्याधुनिक
नव से नवतर साम्राज्यों के
प्रतीकों, चिह्नों, स्थापनाओं से
ग़ुलाम हिसाब साफ़ कर रहे हैं आक़ाओं से
भूत-भविष्य-वर्तमान इस वेला में कुछ नहीं
भूल-भुलैया में हर संज्ञा
नए बंधन में बँधते संबंध सारे
उँच-नीच, आगे-पीछे और दाएँ-बाएँ के
शाम होती है आज़ाद सदियों में कभी
जैसे इस पल, अभी…
मैं इस पल के छोर पर
जहाँ तथाकथित जीवन का गणित
गड़बड़ा जाता है
जहाँ लाखों मृत और घायल
अपनी स्वप्न-पूर्ति चाहते हैं
जीवितों से तुरंत, इसी पल
सेहत-स्फूर्ति चाहते हैं
अपने काले अँधेरे में गिरता हूँ
फिर उजाले की तरह उठने के लिए
नव से नवतर होता विद्रोह
मुझे सिखाता बेहतर से बेहतर
सम्राटों के मुकुटों पर
चिंगारियाँ उचटती
शंकित-भयभीत अपने पूर्वजों को पुकारते
वे दुःस्वप्नग्रस्त
अपनी ही ख़ूँख़ारी से त्रस्त
उच्च-स्नायविक दौरे में
करते अपने अचूक मंत्रों का जाप
अपना ही नाम चिल्लाते दाँत पीस-पीस
फ़ाशीवादी प्रलाप
मैं ख़ुश मगर इस शाम
देखता हूँ महासंग्राम
संक्रांति…
- रचनाकार : उस्मान ख़ान
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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